SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा-१ प्रियापुरीनाथखगेन्द्रसूनुः परः सखासीत्पवनाविवेगः। तस्यार्थकारी क्षतजाडघवृत्तः समीरणो ऽग्नेरिव वेगशाली ॥४८ अन्योन्यमुन्मुच्य महाप्रतापौ स्थातुं क्षमौ नैकमपि क्षणं तौ'। मतौ दिनार्काविव सज्जनानां मार्गप्रकाशप्रवणावभूताम् ॥४९ दुरन्तमिथ्यात्वविषावलीढो जिनेशवक्त्रोद्गततत्त्वबाह्यः । कुहेतुदृष्टान्तविशेषवादी प्रियापुरीनाथसुतो ऽभवत्सः ॥५० मिथ्यात्वयुक्तं तमवेक्षमाणो जिनेशधर्मे प्रतिकूलवृत्तिम् । मनोऽन्तरे' मानसवेगैभव्यस्तताम शोकेन सुदुःसहेन ॥५१ दुःखे दुरन्ते सुहृदं पतन्तं मिथ्यात्वलीढं विनिवारयामि । मित्रं तमाहुः सुधियोऽत्र पथ्यं यः पावने योजयते' हि धर्मे ॥५२ ४८) १. प्रभाशङ्खविपुलमत्योरपत्यम् । २. क मित्र । ३. क मनोवेगस्य । ४. क हितकर्ता । ५. क क्षता निरस्ता जाड्यवृत्तिर्येनासौ, निर्मलबुद्धेः । ४९) १. क मनोवेगपवनवेगौ। २. कथितौ; क मान्यौ । ५१) १. क विपरीतस्वभावम् । २. मनो ऽभ्यन्तरे। ३. मनोवेगः। ४. पीडितवान्; क खेदं प्राप्तवान् । ५२) १. गुणकारिणे [णि ] । २. क स्थापयेत। ___ उधर प्रियापुरीके स्वामी विद्याधर नरेशके एक पवनवेग नामका पुत्र था जो उस मनोवेगका गाढ़ मित्र था। जिस प्रकार वेगशाली वायु अग्निकी वृद्धिमें सहायक होती है उसी प्रकार वह पवनवेग अज्ञानतापूर्ण प्रवृत्तिसे रहित (विवेकी) उस मनोवेगकी कार्यसिद्धिमें अतिशय सहायक था ॥४॥ ___वे दोनों महाप्रतापी एक दूसरेको छोड़कर क्षणभर भी नहीं रह सकते थे । उक्त दोनों मित्र दिन और सूर्यके समान माने जाते थे, अर्थात् जैसे दिन सूर्यके साथ ही रहता हैउसके बिना नहीं रहता है-वैसे ही वे दोनों भी एक दूसरेके बिना नहीं रहते थे। तथा वे सूर्य और दिनके समान ही सज्जनों के लिए मार्गके दिखलानेमें प्रवीण थे॥४९॥ प्रियापुरीके राजाका पुत्र वह पवनवेग दुर्विनाश मिथ्यात्वरूप विषसे व्याप्त और जिनेन्द्रके मुखसे निकले हुए ( उपदिष्ट ) तत्त्वसे बहिर्भूत-जिन भगवानके द्वारा प्ररूपित तत्त्वोंपर श्रद्धान न करनेवाला-होकर कुयुक्ति व खोटे दृष्टान्तोंके आश्रयसे विवाद किया उसको मिथ्यात्वसे युक्त होकर जैन धर्मके प्रतिकूल प्रवृत्ति करते हुए देखकर भव्य मनोवेग अन्तःकरणमें दुःसह शोकसे सन्तप्त हो रहा था ॥५१॥ मिथ्यात्वसे ग्रसित उस पवनवेग मित्रको दुर्विनाश दुखमें पड़ते हुए देखकर मनोवेगने विचार किया कि मैं उसे इस कुमार्गमें चलनेसे रोकता हूँ। ठीक भी है-विद्वान् मनुष्य मित्र उसीको बतलाते हैं जो कि यहाँ उसे हितकारक पवित्र धर्म में प्रवृत्त करता है ॥५२॥ ४९) इ स्थातुं क्षणं नैकमपि क्षमौ। ५१) इ जिनेशधर्मामृतमग्नवृत्तिः। ५२) इ मिथ्यात्वभावं विनिवारयैनम्; योजयते सुधर्मे । करता था ॥५॥
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy