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अमितगतिविरचिता तन्वी' मनोवेगमनिन्द्यवेगं निषेव्यमाणा खचरेश्वरेण । सासूत शोकापनुदं तनूजं महोदयं नीतिरिवार्थनीयम् ॥४३ हिमांशुमालीवे हतान्धकारः कलाकलापेन विशुद्धवृत्तः। दिने दिने ऽसौ ववृधे कुमारः समं गुणौधेन विनिर्मलेन ॥४४ जग्राह विद्या वसुधाधिपानां बुद्धया चतस्रो ऽपि विशुद्धयासौ। समुद्रयोषा इव वेलयाब्धिलक्ष्मीनिवासः स्थितिमानगाधः ॥४५ मुनीन्द्रपादाम्बुजचञ्चरीको जिनेन्द्रवाक्यामृतपानपुष्टः । बभूव बाल्ये ऽपि महानुभावः सद्धर्मरागी महनीयबुद्धिः ॥४६ सद्यो वशीकर्तुमनन्तसौख्यामकल्मषां सिद्धिवर्धू समर्थाम् ।
बभार यः क्षायिकमर्चनीयं सम्यक्त्वरत्नं भववह्निवारि ॥४७ ४३) १. क सूक्ष्माङ्गी । २. क शोकस्फेटकम् । ४४) १. चन्द्रकिरण इव; क चन्द्रः। ४५) १. क राज्ञाम् । २. नदीव। ३. क निश्चलः । ४६) १. क भ्रमरः । २. क पूजनीयबुद्धिः । ४७) १. क धारयामास।
विद्याधरोंके स्वामी जितशत्रुके द्वारा सेव्यमान उस कृशांगी ( वायुवेगा) ने प्रशंसनीय वेगसे संयुक्त, शोकको नष्ट करनेवाले और महान् अभ्युदयसे सहित ऐसे एक मनोवेग नामक पुत्रको इस प्रकारसे उत्पन्न किया जिस प्रकार कि नीति अभीष्ट पदार्थको उत्पन्न करती है ॥४३॥
जिस प्रकार चन्द्रमा अन्धकारको नष्ट करता हुआ प्रतिदिन अपनी कलाओंके समूहके साथ वृद्धिको प्राप्त होता है उसी प्रकार विशुद्ध आचरण करनेवाला वह मनोवेग पुत्र अपने निर्मल गुणसमूहके साथ प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त होने लगा ॥४४॥
जिस प्रकार लक्ष्मी (रत्नोंरूप सम्पत्ति) का स्थानभूत, स्थिर एवं गहरा समुद्र अपनी बेला ( किनारा) के द्वारा नदियोंको ग्रहण किया करता है उसी प्रकार लक्ष्मी (शोभा व सम्पत्ति) के निवासस्थानभूत, दृढ़ एवं गम्भीर उस मनोवेगने अपनी निर्मल बुद्धिके द्वारा राजाओंकी चारों ही प्रकारकी विद्याओं (साम, दान, दण्ड व भेद) को ग्रहण कर लिया ॥४५॥
अतिशय प्रभावशाली व प्रशंसनीय बुद्धिवाला वह मनोवेग बाल्यावस्थामें ही मुनियोंके चरण-कमलोंका भ्रमर बनकर (मुनिभक्त होकर ) जिनागमरूप अमृतके पीनेसे पुष्ट होता हुआ धर्म में अनुराग करने लगा था ।।४६।।..
... उसने अनन्त सुखसे परिपूर्ण, कम-कलंकसे रहित एवं अनन्त सामर्थ्य (वीर्य) से सहित ऐसी मुक्तिरूप कामिनीको शीघ्र ही वशमें करनेके लिए पूजनेके योग्य क्षायिक सम्यक्त्वरूप रत्नको धारण कर लिया। वह सम्यक्त्व संसाररूप अग्निको शान्त करनेके लिए जलके समान उपयोगी है ।।४७॥ ४४) क इ सुनिर्मलेन । ४७) इ भवरत्नवारि ।