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धर्मपरीक्षा-१ देव्योऽङ्गनाभिस्त्रिदशा नभोगैः शक्राः खगेन्द्रर्भवनैविमानाः । यस्यां व्यजीयन्त निजप्रभाभिः सा शक्यते" वर्णयितुं कथं पूः॥३१ नभश्चरेशो जितशत्रुनामा स्वधामनिर्भत्सितशत्रुधामा । सुधाशिपुर्यामिव देवराजस्तस्यामभूद्वज्रविराजिहस्तः ॥३२ वाचंयमो यः परदोषवादे न न्यायशास्त्रार्थविचारकार्ये । निरस्तहस्तो ऽन्यधनापहारे न दर्पितारातिमवप्रमर्दे ॥३३ अन्धो ऽन्यनारीरवलोकितुं यो न हृद्यरूपा' जिननाथमूर्तीः । निःशक्तिकः कर्तुमवद्यकृत्यं न धर्मकृत्यं शिवशर्मकारि ॥३४
३१) १. विद्याधरीभिः । २. विद्याधरैः । ३. इन्द्रः । ४. खगराजभिः । ५. क अस्माभिः । ३२) १. प्रताप-बल। २. क स्वतेजोनिरस्तशत्रुतेजाः। ३. देवनगर्याम् । ४. क श्रीवैजयन्ती
नगर्याम् । ३३) १. संकोचित; क हस्तरहितः। ३४) १. मनोज्ञा; क मनोहररूपा । २. पापकार्यम् ।
जिस नगरीमें प्रजाने विद्याधर स्त्रियोंके द्वारा देवियोंको, विद्याधरोंके द्वारा देवोंको, विद्याधर राजाओंके द्वारा इन्द्रोंको, तथा भवनोंके द्वारा विमानोंको जीत लिया था उस नगरीका पूरा वर्णन कैसे किया जा सकता है ? अभिप्राय यह है कि वह नगरी स्वर्गपुरीसे भी श्रेष्ठ थी ॥३१॥
उस नगरी में अपने प्रतापसे शत्रुओंके नामको झिड़कनेवाला (तिरस्कृत करनेवाला) जितशत्रु नामक विद्याधरोंका राजा राज्य करता था। वनके समान कठोर सुन्दर भुजाओं: वाला वह राजा उस नगरीमें इस प्रकारसे स्थित था जिस प्रकारसे देवोंकी पुरी (अमरावती) में वज्र आयुधसे शोभायमान हाथवाला इन्द्र स्थित रहता है ॥३२॥ - वह विद्याधर नरेश दूसरोंके दोषोंके दिखलानेमें जिस प्रकार मौनका अवलम्बन लेता था उस प्रकार न्याय और शास्त्रके अर्थका विचार करनेमें मौनका अवलम्बन नहीं लेता था, तथा वह दूसरोंके धनका अपहरण करनेमें जैसे हाथोंसे रहित था-उनका उपयोग नहीं करता था-वैसे अभिमानी शत्रुओंके मानमर्दनमें वह हाथोंसे रहित नहीं था इसके लिए वह अपनी प्रबल भुजाओंका उपयोग करता था (परिसंख्यालंकार ) ॥३३॥
वह यदि अन्धा था तो केवल रागपूर्वक परस्त्रियोंके देखनेमें ही अन्धा था, न कि मनोहर आकृतिको धारण करनेवाली जिनेन्द्र प्रतिमाओंके देखनेमें-उनका तो वह अतिशय भक्तिपूर्वक दर्शन किया करता था। इसी प्रकार यदि वह असमर्थ था तो केवल पापकार्यके करनेमें असमर्थ था, न कि मोक्षसुखके करनेवाले धर्मकार्यमें-उसके करनेमें तो वह अपनी पूरी शक्तिका उपयोग किया करता था (परिसंख्यालंकार )॥३४॥
३१) अ दिव्याङ्गनाभिः । ३४) इ जिनराजमूर्तीः ।