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________________ अमितगतिविरचिता चन्द्रः कलङ्की तपनो ऽतितापी जडेः पयोधिः कठिनः सुराद्रिः। यतो ऽमरेन्द्रो ऽजनि गोत्रभेदी ततो न ते यस्य समा बभूवुः ॥३५ यः पार्थिवो' ऽप्युत्तमबोधधारी स्थिरस्वभावो ऽजनि पावनो ऽपि । कलानिधानोऽपि निरस्तदोषः सत्यानुरागी वृषवर्धको ऽपि ॥३६ विवर्धमानस्मरवायुवेगा प्रियाप्रियास्याजनि वायुवेगा। जिनेन्द्रचन्द्रोदितधर्मविद्या विद्याधरी साधितभूरिविद्या ॥३७ ३५) १. अज्ञानः मूर्खः । २. क मेरुः । ३. चन्द्रादयः ते। ३६) १. पाषाणराजः । २. पवित्रः । ३. समूहः । ४. सत्यभामा। ५. धर्म । ३७) १. कथित । चूंकि चन्द्रमा कलंक (काला चिह्न) से सहित है और वह राजा उस कलंकसे रहित ( निष्पाप ) था, सूर्य विशिष्ट सन्ताप देनेवाला है और वह उस सन्तापसे रहित था, समुद्र जड़ है-जलस्वरूप या शीतल है और वह जड़ नहीं था-अज्ञानी नहीं था, मेरु कठोर है और वह कठोर ( निर्दय ) नहीं था, तथा इन्द्र गोत्रभेदी है-पर्वतोंका भेदन करनेवाला है और वह गोत्रभेदी नहीं था-वंशको कलंकित करनेवाला नहीं था; इसीलिए ये सब उसके समान नहीं हो सकते थे—वह इन सबसे श्रेष्ठ था ॥३५॥ ____ वह राजा पृथिवी स्वरूप हो करके भी उत्तम ज्ञानको धारण करनेवाला था जो पृथिवीस्वरूप होता है वह ज्ञानका धारक नहीं हो करके जड़ होता है, इस प्रकार यहाँ यद्यपि सरसरी तौरपर विरोध प्रतीत होता है, परन्तु उसका ठीक अर्थ जान लेनेपर यहाँ कुछ भी विरोध नहीं दिखता है । यथा-वह पार्थिव-पृथिवीका ईश्वर (राजा)-होता हुआ भी सम्यग्ज्ञानी था। वह पावन (पवनस्वरूप ) होता हुआ भी स्थिर स्वभाववाला था-जो पवन (वायु) स्वरूप होगा वह कभी स्थिर नहीं होगा, इस प्रकार यद्यपि यहाँ आपाततः विरोध प्रतिभासित होता है, परन्तु वास्तविक अर्थ के ग्रहण करनेपर वह विरोध नहीं रहता है। यथा-वह राजा पावन अथात् पवित्र होता हुआ भी स्थिर स्वभाववाला (दृढ़) था। कलाओंका निधानभूत चन्द्रमा हो करके भी वह निरस्तदोष अर्थात् दोषा (रात्रि ) के संसर्गसे रहित था-चूंकि चन्द्र कभी रात्रिके संसर्गसे रहित नहीं होता है, इसलिए यद्यपि यहाँ वैसा कहनेपर आपाततः विरोध प्रतिभासित होता है, परन्तु यथार्थमें कोई विरोध नहीं है। यथा-कलाओंका निधान अर्थात् बृहत्तर कलाओंका ज्ञाता हो करके भी वह निरस्तदोष अर्थात् दोषोंसे रहित था। वह वृषवर्धक-बैलका बढ़ानेवाला महादेव-होता हुआ भी सत्यानुरागी अर्थात् सत्यभामासे अनुराग करनेवाला कृष्ण था-महादेव चूँकि कृष्ण नहीं हो सकता है, अतएव यहाँ आपाततः यद्यपि विरोध प्रतिभासित होता है, परन्तु यथार्थ अर्थके ग्रहण करनेपर कोई विरोध नहीं रहता है। यथा-वह वृषवर्धक अर्थात् धर्मका बढ़ानेवाला होता हुआ भी सत्यानुरागी-सत्यसंभाषणमें अनुराग रखनेवाला था (विरोधाभास ) ॥३६॥ उस जितशत्रु राजाके वायुवेगा नामकी अतिशय प्यारी पत्नी थी। वह विद्याधरी ३५) अब इ तपनो वितापी; अ यतो सुरेन्द्रो। ३६) ब बोधकारी3; इ वृषवर्धनो। ३७) इ सर्व for भूरि ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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