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________________ १० अमितगतिविरचिता २ अकृत्रिमा यत्रे जिनेश्वरार्चाः श्रीसिद्धकूटस्थजिनालयस्थाः । निषेव्यमाणाः क्षपयन्ति पापं हुताशनस्येव शिखास्तुषारम् ॥२६ आश्वासयन्ते वचनैर्जनौघं श्रीचारणा यत्रे मुमुक्षुवर्याः । रजोपहारोद्यतयः पयोदा गम्भीरनादा इव वारिवर्षैः ॥ २७ यात्रा दक्षिणस्यां श्रीवैजयन्ती नगरी प्रसिद्धा । निजैर्जयन्ती नगरौं सुराणां विभासमानैविविधैविमानैः ॥२८ मनीषितेप्राप्त समस्त भोगाः परस्परप्रेमविषक्तेचित्ताः । निराकुला भोगभुवीव यस्यां सुखेन कालं गमयन्ति लोकाः ॥२९ सर्वाणि साराणि गृहाणि यस्यामानीय रम्याणि निवेशितानि । प्रजासृजा दर्शयितुं समस्तं सौन्दर्य मेकस्थमिव प्रजानाम् ॥३० २६) १. गिरौ । २. प्रतिमाः । ३. क शीत । २७) १. सुखी कुर्वन्ति; क प्रीणयते । २. क विजयार्थे । ३. क यतिवराः । ४. उद्यमः । २८) १. नगे । २. क जाता । ३. क अमरावती । ४. विद्याधरविमानैः । २९) १. मनोवाञ्छितः क मनोऽभीष्ट । २. क संयुक्त । ३. क श्रीवैजयन्तीनगर्याम् । ३०) १. स्थापितानि । २. ब्रह्मणा । ३. रमणीयताम् । उस विजयार्ध पर्वतके ऊपर सिद्धकूटपर स्थित जिनालय में विराजमान अकृत्रिम जिन प्रतिमाएँ भव्य जीवोंके द्वारा आराधित होकर उनके पापको इस प्रकारसे नष्टकर देती हैं जिस प्रकार से अग्निकी ज्वालाएँ शैत्यको नष्ट किया करती हैं ||२६|| उस पर्वतके ऊपर मोक्षाभिलाषी मुनियोंमें श्रेष्ठ चारण मुनिजन अपने वचनों (उपदेश ) के द्वारा पापरूप धूलिके विनाशमें उद्यत होकर मनुष्योंके समूहको इस प्रकार से आनन्दित करते हैं जिस प्रकार कि गम्भीर गर्जना करनेवाले मेघ पानीकी वर्षासे धूलिको शान्त करके उसे ( मनुष्यसमूहको ) आनन्दित करते हैं ||२७|| उस पर्वत के ऊपर दक्षिण श्रेणीमें वैजयन्ती नामकी एक प्रसिद्ध नगरी है जो कि अपने चमकते हुए अनेक प्रकारके विमानोंसे देवोंकी नगरी (अमरावती) को जीतती है ॥२८॥ नगरी में रहनेवाले मनुष्य अपने समयको इस प्रकारसे सुखपूर्वक बिताते हैं जिस प्रकार कि भोगभूमिज आर्य मनुष्य भोगभूमिमें अपने समयको सुखपूर्वक बिताया करते हैं । कारण यह कि जिस प्रकारसे आर्योंको भोगभूमि में इच्छानुसार भोग उपलब्ध होते हैं उसी प्रकार इस नगरी में निवास करनेवाले मनुष्यों को भी इच्छानुसार वे भोग उपलब्ध होते हैं तथा जिस प्रकार भोगभूमि में आर्योंका मन पारस्परिक प्रेमसे परिपूर्ण रहता है उसी प्रकार इस नगरीके लोगोंका भी मन पारस्परिक प्रेम से परिपूर्ण रहता है ||२९|| ब्रह्माने सब सुन्दरताको एक जगह दिखलाने के लिए ही मानो समस्त रमणीय श्रेष्ठ घरोंको लाकर इस नगरीके भीतर स्थापित किया था । तात्पर्य यह है कि उस नगरीके भवन बहुत रमणीय थे ||३०| २६) इ श्रीसिद्धिकूटस्य; क्षपयन्ति दुःखं । २७ ) इ मुनीन्द्रवर्याः; क 'हारोद्युतयः । २८) व इ नगरी सुराणां ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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