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________________ धर्मपरीक्षा - १ दीप्रो' द्वितीयः परिवर्धमानैविराजते ध्वस्तमहान्धकारः । विनिर्गतो येः किरणैप्ररोहैविभिद्य धात्रीमिव तिग्मरश्मिः ॥२२ विद्याधरैरुत्तरदक्षिणे द्वे श्रेण्यावभूतामिह सेव्यमाने । रेखे मदस्येव करेणुंभतु भृङ्गरनेकैः श्रवणीयगीतैः ॥२३ चराणां नगराणि षष्ट श्रेण्यां श्रुतज्ञा विदुरुत्तरस्याम् । पञ्चाशतं तत्रे च दक्षिणस्यां मनश्चराणि प्रेसरद्दघुतीनाम् ॥२४ fafart : ' केटकैरुपेतो रत्नैनिधानैरवभासमानः । निलिम्पविद्याधरसेव्य पादो यश्चक्रवर्तीव विभाति तुङ्गः ॥२५ २२) १. दीप्तिमान् । २. विजयार्ध: । ३. प्रसारै: । ४. क सूर्यः । २३) १. गिरी; क विजयार्धे । २. ऐरावणहस्तिनः ; क हस्ती । २४) १. गिरौ । २. क मोटी द्युति । २५) १. पक्षी । २. अश्वगजादि । ३. संयुक्तः । ४. क शोभायमानः । ५. देव । वह विजयार्ध पर्वत वृद्धिंगत किरणांकुरोंसे महान् अन्धकारको नष्ट करता हुआ ऐसे शोभायमान होता है जैसे मानो अपने किरणसमूहसे पृथिवीको भेदकर निकला हुआ देदीप्यमान दूसरा सूर्य ही हो ॥२२॥ उस विजयार्ध पर्वतके ऊपर विद्याधरोंसे सेव्यमान उत्तर श्रेणी और दक्षिण श्रेणी ये दो श्रेणियाँ हो गयी हैं । ये दोनों श्रेणियाँ इस प्रकारसे शोभायमान होती हैं जैसे कि मानो सुनेको योग्य गीतोंको गानेवाले - गुंजार करते हुए - अनेक भौंरोंसे सेव्यमान गजराज के मदकी दो रेखाएँ ही हों ||२३|| श्रुतके पारंगत गणधरादि उस बिजयार्धकी उत्तर श्रेणीमें निर्मल कान्तिवाले विद्याधरोंके साठ नगर तथा दक्षिण श्रेणीमें उनके पचास नगर जो कि मनमाने चल सकते थे, बतलाते हैं ||२४|| वह उन्नत विजयार्ध पर्वत चक्रवर्तीके समान शोभायमान है । कारण कि चक्रवर्ती जैसे अनेक पत्रों (वाहनों) से संयुक्त कटकों (सेना) से सहित होता है वैसे ही वह पर्वत भी अनेक पत्रों (पक्षियों) से संयुक्त कटकों (शिखरों ) से सहित है, चक्रवर्ती यदि चौदह रत्नों और नौ निधियोंसे प्रतिभासमान होता है तो वह भी अनेक प्रकारके रत्नों एवं निधियोंसे प्रतिभासमान है, तथा जिस प्रकार देव और विद्याधर चक्रवर्ती के पादों (चरणों) की सेवा किया करते हैं उसी प्रकार वे देव और विद्याधर उस पर्वतके भी पादों (शिखरों ) की सेवा ( उपभोग ) किया करते हैं, तथा चक्रवर्ती जहाँ विभूतिसे उन्नत होता है वहाँ वह पर्वत अपने शरीर से उन्नत ( २५ योजन ऊँचा ) है ||२५|| २२) इ दीप्तो । २३) इ सेव्यमानी.... गीतौ । २४ ) इ षष्टिः; अकड दक्षिणस्यां नभश्चराणामनघद्युतीनां । २५) इ विचित्र पात्रः । २
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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