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________________ ३१६ अमितगतिविरचिता यः खादति जनो मांसं स्वकलेवरपुष्टये । हिलस्य तस्य नोत्तारः श्वभ्रतो ऽनन्तदुःखतः ॥२४ मांसादिनो दया नास्ति कुतो धर्मो ऽस्ति निर्दये । सप्तमं व्रजति श्वभ्रं निर्धर्मो भूरिवेदनम् ॥२५ द्रष्टुं प्रष्टुं मनो यस्य प्राणिघाते प्रवर्तते । प्रयाति सोऽपि लल्लक्वं वधकारी न किं पुनः ॥२६ आजन्म कुरुते हिंसां यो मांसाशनलालसः । न जातु तस्य पश्यामि निर्गमं श्वभ्रकूपतः ॥२७ निभिन्नो यः शलाकाभिर्हठाद् वज्रहविर्भुज । क्षिप्यते नारकैः श्वभ्रे वधमांसरतो जनः ॥२८ हन्तुं दृष्ट्वाङ्गिनो बुद्धिः पलाशस्य प्रवर्तते । यतः कण्ठीरवस्येव पलं त्याज्यं ततो बुधैः ॥२९ २८) १. लोहमयैः । जो प्राणी अपने शरीरको पुष्ट करनेके लिए अन्य प्राणीके मांसको खाया करता है उस पापिष्ठ हिंसक प्राणीका अनन्त दुःखोंसे परिपूर्ण नरकसे उद्धार नहीं हो सकता है-उसे नरक में पड़कर अपरिमित दुःखोंको सहना ही पड़ेगा ||२४|| मांस भक्षण करनेवालेके हृदयमें जब दया ही नहीं रहती है तब भला उस निर्दयी के धर्मकी सम्भावना कहाँसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है। क्योंकि धर्मका मूल कारण तो वह दया ही है । अतएव वह धर्मसे रहित - पापी - प्राणी प्रचुर दुःखोंसे परिपूर्ण सातवें नरक में जाता है ||२५|| जिस मनुष्यका मन प्राणियोंके प्राणविघातके समय उसे देखने व छूनेके लिए भी प्रवृत्त होता है वह भी जब लल्लंक नामक छठी पृथिवीके नारकबिलको प्राप्त होता है तब भला जो उस हिंसाको स्वयं कर रहा है वह क्या नरकको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य प्राप्त होगा ||२६|| प्राणी मांस खाने की इच्छासे जन्मपर्यन्त - जीवनभर - ही हिंसा करता है वह कभी नरकरूप कुएँ से निकल सकेगा, यह मुझे प्रतीत नहीं होता - वह निरन्तर नरक दुखको सहता रहता है ||२७|| प्राणियों की हिंसा व उनके मांस भक्षणमें उद्यत मनुष्य लोहसे निर्मित सलाइयों द्वारा बलपूर्वक छेदाभेदा जाकर नरकके भीतर नारकियोंके द्वारा वज्रमय अग्निमें फेंका जाता है ||२८|| २५) ड मांसाशिनो । २६) ड लल्लक्कम्; अ पुन: for किम् । २७ ) अ निर्गमः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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