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धर्मपरीक्षा - १९
दिव्येषु सत्सु भोज्येषु मांसं खादन्ति ये ऽधमाः । श्वभ्रेभ्यो नोदुःखेभ्यो नियियासन्ति ते ध्रुवम् ॥३०
न भेदं सारमेयेभ्यः पलाशी लभते यतः । कालकूटमिव त्याज्यं ततो मांसं हितैषिभिः ॥३१
हन्यते येन मर्यादा वल्लरीव दवाग्निना । तन्मद्यं न त्रिधा पेयं धर्मकामार्थसूदनम् ॥ ३२ मातृस्वसृता भोक्तुं मोहतो येन काङ्क्षति । न मद्यतस्ततो निन्द्यं दुःखदं विद्यते परम् ॥३३
मूत्रयन्ति मुखे श्वानो वस्त्रं मुष्णन्ति तस्कराः । मद्यमूढस्य रथ्यायां पतितस्य विचेतसः ॥३४
२९) १. मांसस्य । २. सिंहस्य | ३०) १. निःसरितुं न वाञ्छति । ३४) १. अध्वनि ।
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जो प्राणी मांसका भक्षण किया करता है उसकी बुद्धि मांसभक्षी सिंहकी बुद्धिके समान चूँकि प्राणियोंको - मृगादि पशु-पक्षियोंको देखकर उनके घातमें प्रवृत्त होती है, अतएव विवेकी जीवोंको उस मांसका परित्याग करना चाहिए ||२९||
खाने के योग्य अन्य उत्तम पदार्थोंके रहनेपर भी जो निकृष्ट प्राणी मांसका भक्षण किया करते हैं वे महादुःखों से परिपूर्ण नरकों में से नहीं निकलना चाहते हैं, यह निश्चित है ||३०|| मांसभोजी जीव चूँकि कुत्तोंसे भेदको प्राप्त नहीं होता है - वह कुत्तोंसे भी निकृष्ट समझा जाता है - अतएव आत्महितकी अभिलाषा रखनेवाले जीवोंको उस मांसको कालकूट विषके समान घातक समझकर उसका परित्याग करना चाहिए ||३१||
जिस प्रकार वनकी अग्निसे वेल नष्ट कर दी जाती है उसी प्रकार जिस मद्यके पानसे मर्यादा – योग्य मार्ग में अवस्थिति ( सदाचरण ) - नष्ट की जाती है उस मद्यका पान मन, वचन व कायसे नहीं करना चाहिए। कारण यह कि वह मद्य प्राणीके धर्म, काम और अर्थ इन तीनों ही पुरुषार्थोंको नष्ट करनेवाला है ||३२||
जिस मद्यपानसे मोहित होकर नशे में चूर होकर - मनुष्य अपनी माता, बहन और पुत्रीका भी सम्भोग करनेके लिए आतुर होता है उस मद्यकी अपेक्षा और कोई दूसरी वस्तु निन्दनीय व दुःखदायक नहीं है - वह मद्य सर्वथा ही घृणास्पद है ||३३||
मद्यपानसे मूर्च्छित होकर गलीमें पड़े हुए उस विवेकहीन प्राणीके मुखके भीतर मूता करते हैं तथा चोर उसके वस्त्रादिका अपहरण किया करते हैं ||३४||
३०) ब इ सत्सु भोगेषु; अ व निर्ययासन्ति । ३२ ) क ड दह्यते येन । ३३) अ क ड मोहितो ।