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अमितगतिविरचिता पञ्चधाणुव्रतं तत्र त्रेधा चापि गुणवतम् । शिक्षावतं चतुर्धेति व्रतं द्वादशधा स्मृतम् ॥१२ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमसंगता। पञ्चधाणुवतं ज्ञेयं देशतः कुर्वतः सतः ॥१३ सुखतो गृह्यते वत्स पाल्यते दुःखतो व्रतम् । वंशस्य सुकरश्छेदो निश्कर्षो दुःकरस्ततः ॥१४ परिगृह्य व्रतं रक्षेन्निधाय हृदये सदा। मनीषितसुखाधायि निधानमिव समनि ॥१५ प्रमादतो व्रतं नष्टं लभ्यते न भवे पुनः। समर्थ चिन्तितं दातुं दिव्यं रत्नमिवाम्बुधौ ॥१६ द्विविधा देहिनः सन्ति त्रसस्थावरभेवतः।
रक्षणीयास्त्रसास्तत्र गेहिना व्रतमिच्छता ॥१७ वह श्रावकका व्रत पाँच प्रकारका अणुव्रत, तीन प्रकारका गुणव्रत और चार प्रकारका शिक्षाव्रत; इस प्रकारसे बारह प्रकारका माना गया है. ॥१२॥
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच व्रतोंका जो एकदेशरूपसे परिपालन किया करता है उसके उपर्युक्त पाँच प्रकारका अणुव्रत-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौयोणव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत-जानना चाहिए ।।१।।
हे बच्चे! व्रतको ग्रहण तो सुखपूर्वक कर लिया जाता है, परन्तु उसका परिपालन बहुत कष्ट के साथ होता है । ठीक है-बाँसका काटना तो सरल है, परन्तु उसका निष्कर्षउसे वंशपुंजसे बाहर निकालना-बहुत कष्ट के साथ होता है ।।१४॥
जो अभीष्ट सुखको प्राप्त करना चाहता है उसे व्रतको स्वीकार करके व उसे हृदयमें धारण करके उसकी निरन्तर इस प्रकारसे रक्षा करनी चाहिए जिस प्रकार कि सम्पत्तिसुखका अभिलाषी मनुष्य निधिको प्राप्त करके उसकी अपने घरके भीतर निरन्तर सावधानीपूर्वक रक्षा किया करता है ॥१५॥
कारण यह है कि जो दिव्य रत्न-चिन्तामणि-मनसे चिन्तित सभी अभीष्ट वस्तुओंके देनेमें समर्थ होता है उसके प्राप्त हो जानेपर यदि वह असावधानीसे समुद्रमें गिर जाता है तो जिस प्रकार उसका फिरसे मिलना सम्भव नहीं है उसी प्रकार ग्रहण किये गये व्रतके असावधानीसे नष्ट हो जानेपर उसका भी संसारमें फिरसे मिलना सम्भव नहीं है ॥१६॥ __संसारी प्राणी त्रस और स्थावरके भेदसे दो प्रकारके हैं। उनमें व्रतको स्वीकार करनेवाले श्रावकको त्रस जीवोंकी रक्षा सर्वथा करनी चाहिए-त्रस जीवोंका सबथा रक्षण करते हुए उसे निरर्थक स्थावर जीवोंका भी विघात नहीं करना चाहिए ॥१७॥ १२) अ ब त्रेधावाचि, क त्रेधावापि। १५) क रक्ष्यं निघाय। १६) अ भवेत्पुनः ; ड इ विततं दातुम् ; अक दिव्यरत्न।