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अमितगतिविरचिता
अध्वर्युभिः कृता यागे हिंसा संसारकारिणी । पाधिरिवारण्ये प्राणिपीडाकरी यतः ॥१९ हन्यमाना हठाज्जीवा याज्ञिकैः खट्टिकेरिवे । स्वर्गं यान्तीति भो चित्रं संक्लेशव्याकुलीकृताः ॥२० या धर्मनियमध्यानसंगतैः साध्यते ऽङ्गिभिः । कथं स्वर्गगतिः साध्या हन्यमानैरसौ हठात् ॥२१ वैदिकानां वचो ग्राहचं न हिंसासाधि साधुभिः । afट्टिकानां कुतो वाक्यं धार्मिकैः क्रियते हृदि ॥२२ न जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभिः । सत्यशौचतपःशीलध्यानस्वाध्यायवजितैः ॥२३
२०) १. खाटकैः ।
२२) १. ध्रियते ।
याग कर्ताओंके द्वारा यागमें जो प्राणिहिंसा की जाती है वह इस प्रकार से संसार परिभ्रमणकी कारण है जिस प्रकार कि शिकारियोंके द्वारा वनके बीच में की जानेवाली प्राणिपीड़ाजनक जीवहिंसा संसारपरिभ्रमणकी कारण है ||१९||
जिस प्रकार कसाइयोंके द्वारा मारे जानेवाले गो-महिषादि प्राणी उस समय उत्पन्न होने वाले संक्लेश से अतिशय व्याकुल किये जाते हैं उसी प्रकार यज्ञमें यागकर्ताओंके द्वारा हठपूर्वक मारे जानेवाले बकरा व भैंसा आदि प्राणी भी उस समय उत्पन्न होनेवाले भयानक संक्लेश से अतिशय व्याकुल किये जाते हैं । फिर भी यज्ञ में मारे गये वे प्राणी स्वर्गको जाते हैं, इन याज्ञिकोंके कथनपर मुझे आश्चर्य होता है। कारण कि उक्त दोनों ही अवस्थाओं में समान संक्लेशके होते हुए भी यज्ञ में मारे गये प्राणी स्वर्गको जाते हैं और कसाइयोंके द्वारा मारे गये प्राणी स्वर्गको नहीं जाते हैं, यह कथन युक्तिसंगत नहीं है ॥२०॥
प्राणी जिस देवगतिको धर्मके नियमों - व्रतविधानादि — और ध्यानमें निरत होकर प्राप्त किया करते हैं उस देवगतिको दुराग्रहवश यज्ञमें मारे गये प्राणी कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? उसकी प्राप्ति उनके लिए सर्वथा असम्भव है ||२१||
इसलिए सत्पुरुषोंको इन वेदभक्त याज्ञिकोंके हिंसाके कारणभूत उक्त कथनको ग्रहण नहीं करना चाहिए । कारण कि धर्मात्मा जन कसाइयोंके - हिंसक जनोंके - कथनको कहीं किसी प्रकार से भी हृदयंगम नहीं किया करते हैं ||२२||
प्राणी सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्यायसे रहित होकर भी जाति मात्रसे - केवल उच्च समझी जानेवाली ब्राह्मण आदि जातिमें जन्म लेनेसे ही - धर्मको नहीं प्राप्त कर सकते हैं ||२३||
१९) अ ड अथ पुम्भिः for अध्वर्युभि:; अ योगे, ब गेहे for यागे । २०) अ खङ्गिकैरिव; अ ब ड इ मे चित्रं । २१) अ ध्यानं संगीतैः, ध्यानससंगध्यायते ऽङ्गिभिः । २२) इ हिंसा साध्वि ।