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________________ धर्मपरीक्षा - १७ आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम् । न जातिर्ब्राह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्त्विकी ॥२४ ब्राह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः । एकैव मानुषी जातिराचारेण विभिद्यते ॥ २५ भेदे' जायेत विप्रायां क्षत्रियो न कथंचन । शालिजातौ मया दृष्टः कोद्रवस्य न संभवः ॥ २६ ब्राह्मणो ऽवाचि विप्रेण पवित्राचारधारिणा । विप्राय' शुद्धशीलायां जनितो नेदमुत्तरम् ॥२७ न विप्राविप्रयोरस्ति सर्वदा शुद्धशीलता । कालेनानादिना गोत्रे स्खलनं क्व न जायते ॥२८ संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया । विद्यन्ते तत्विका यस्यां सा जातिर्महिता सताम् ॥ २९ २४) १. भवेत् । २६) १. सति । २७) १. ब्राह्मणी । २७९ जातियोंके भेदकी कल्पना केवल आचारकी विशेषतासे ही की गयी है। प्राणियों के ब्राह्मणकी प्रशंसनीय जाति कहीं भी नियत नहीं है— परम्परासे ब्राह्मण कहे जाने वालोंके कुल में जन्म लेने मात्र से वह ब्राह्मण जाति प्राप्त नहीं होती, किन्तु वह जप-तप, पूजापाठ एवं अध्ययन-अध्यापन आदिरूप समीचीन आचरणसे ही प्राप्त होती है ||२४|| ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि चारों ही वर्णवालोंकी जाति वस्तुतः एक ही मनुष्य जाति है । उसके भीतर यदि विभाग किया जाता है तो वह विविध प्रकार के आचारसे ही किया जाता है ||२५|| यदि उक्त चारों वर्णवालोंके मध्य में स्वभावतः वह जातिभेद होता तो फिर ब्राह्मणीसे क्षत्रियकी उत्पत्ति किसी प्रकार से भी नहीं होनी चाहिए थी। कारण कि मैंने शालि जातिमें— एक विशेष चावलकी जातिमें - कोद्रव ( कोदों) की उत्पत्ति कभी नहीं देखी है ||२६|| यदि यहाँ यह उत्तर दिया जाये कि शुद्ध शीलवाली ब्राह्मण स्त्रीमें पवित्र आचारके धारक ब्राह्मणके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न किया गया है वह ब्राह्मण कहा जाता है, तो यह उत्तर भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ब्राह्मण और ब्राह्मणेतरमें सर्वकाल शुद्धशीलपना स्थिर नहीं रह सकता है । इसका भी कारण यह है कि अनादि कालसे आनेवाले कुलमें उस शुद्धशीलता से पतन कहाँ नहीं होता है ? कभी न कभी उस शुद्धशीलताका विनाश होता ही है ।। २७-२८|| वस्तुतः जिस जातिमें संयम, नियम, शील, तप, दान, इन्द्रियों व कषायका दमन और दया; ये परमार्थभूत गुण अवस्थित रहते हैं वही सत्पुरुषोंकी श्रेष्ठ जाति समझी जाती है ||२९|| २४) अ क्वापि सात्त्विकी । २५) अइ विभज्यते । २६) ब क इ विप्राणाम्; व क्वापि कोद्रवसंभवः । २७) इ जनिता । २८) ड गोत्रस्खलनम् । २९ ) ब विनयः for नियमः; व सात्त्विका यस्याम्; अ इ जातिर्महती ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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