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________________ २७७ धर्मपरीक्षा-१७ पारंपर्येण से ज्ञेयो नेदृशं सुन्दरं वचः। सर्वज्ञेन विना मूले पारंपयं कुतस्तनम् ॥१५ समस्तैरप्यसर्वज्ञैर्वेदो ज्ञातु न शक्यते । सर्वे विचक्षुषो मागं कुतः पश्यन्ति काक्षितम् ॥१६ कालेनानादिना नष्टं' का प्रकाशयते पुनः । असर्वज्ञेषु सर्वेषु व्यवहारमिवादिमम् ॥१७ नापौरुषेयता' साध्वी सर्वत्रापि मता सताम् । रचौराणां मन्यते कैरकृत्रिमः ॥१८ पन्था १५) १. वेदः । २. सत्यम् । १७) १. जगत्। १८) १. अकृत्रिमता । २. यस्मात् कारणात् । इसपर यदि यह कहा जाय कि वह वेदका अर्थ परम्परासे जाना जाता है तो ऐसा कहना भी सुन्दर नहीं है-वह भी अयोग्य है । क्योंकि, सर्वज्ञके माने बिना वह मूलभूत परम्परा भी कहाँसे बन सकती है ? नहीं बन सकती है। अभिप्राय यह है कि यदि मूलमें उसका व्याख्याता सर्वज्ञ रहा होता तो तत्पश्चात् वह व्याख्यातार्थ परम्परासे उसी रूपमें चला आया माना भी जा सकता था, सो वह सर्वज्ञ मीमांसकोंके द्वारा माना नहीं गया है । इसीलिए वह उसके व्याख्यानकी परम्परा भी नहीं बनती है ॥१५॥ इस प्रकार मीमांसकोंके मतानुसार जब सब ही असर्वज्ञ हैं-सर्वज्ञ कभी कोई भी नहीं रहा है-तब वे सब उस वेदके रहस्यको कैसे जान सकते हैं ? जैसे-यदि सब ही पथिक चक्षुसे रहित ( अन्धे ) हों तो फिर वे अभीष्ट मार्गको कैसे देख सकते हैं ? नहीं देख सकते हैं ॥१६॥ _अनादि कालसे आनेवाला वह वेद कदाचित् नष्ट भी हो सकता है, तब वैसी अवस्था में जब सब ही असर्वज्ञ हैं–पूर्णज्ञानी कोई भी नहीं है तब उसको सादि व्यवहारके समान फिरसे कौन प्रकाशित कर सकता है ? कोई भी नहीं प्रकाशित कर सकता है ॥१७॥ ___ इसके अतिरिक्त वह अपौरुषेयता सत्पुरुषोंको सभी स्थानमें अभीष्ट नहीं हैक्वचित् आकाशादिके विषयमें ही वह उन्हें अभीष्ट हो सकती है, सो वह ठीक भी है, क्योंकि, व्यभिचारी एवं चोरोंके मार्गको भला कौन अकृत्रिम-अपौरुषेय-मानते हैं ? कोई भी उसे अकृत्रिम नहीं मानता है। यदि सर्वत्र ही अपौरुषेयता अभीष्ट हो तो फिर व्यभिचारी एवं चोरों आदिके भी मार्गको अपौरुषेय मानकर उसे भी प्रमाणभूत व प्राह्य क्यों नहीं माना जा सकता है ? ॥१८॥ १५) अ ब मूलम् । १६) ब सर्वज्ञे वेदो। १८) अ सर्वाः for साध्वी....मन्यन्ते ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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