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________________ धर्मपरीक्षा - १६ आराध्य देवतां लब्ध्वा ततः पिण्डं मनीषितम् । दानवेन्द्रो ददौ देव्यास्तनयोत्पत्तिहेतवे ॥८१ ર द्विधाकृत्य तया दत्ते सपत्न्या मोहतो वले । द्विधा गर्भस्तयोर्देव्योर्भवति स्म द्वयोरपि ॥८२ जातं खण्डद्वयं दृष्ट्वा संपूर्ण समये सति । ताभ्यां नीत्वा बहिः क्षिप्तं जरया संघितं पुनः ॥८३ तत्रे जातो जरासंधो विनिर्जितनरामरः । सर्वकर्मक्षमः ख्यातो महनीयपराक्रमः ॥८४ शकेल द्वितयं लग्नं योज्यमानं गतव्रणम् । सव्रणो न कथं मर्धा मदीयः कथ्यतां द्विजाः ॥८५ जरासंधाङ्गदौ यत्र द्वेधाकृतकलेवरौ । जीवितौ मिलितौ तत्र न कि मे मूर्धविग्रहो ॥८६ २६९ ८१) १. देवतायाः। तथापरापि कथा - राजगृहे राजा भद्ररथस्तस्य द्वे भायें । तयोः पुत्राभावादीश्वराराधनं कृत्वा तेन च तुष्टेन तस्मात् । ८२) १. सति । २. एकखंडे । ८४) १. संधिते । ८५) १. खंड । दानवोंके स्वामी (बृहद्रथ ) ने देवताका आराधन करके जिस अभीष्ट पिण्डको उससे प्राप्त किया था उसे उसने पुत्रोत्पत्तिके निमित्त अपनी स्त्रीको दिया ॥ ८१ ॥ परन्त उस स्त्रीने सौत - दानवेन्द्रकी द्वितीय स्त्री - के व्यामोहसे उसके दो भाग करके उनमें से एक भाग उसे भी दे दिया। इससे उन दोनोंके ही दो भागों में गर्भाधान हुआ ||८२ ॥ पश्चात् समय पूर्ण हो जानेपर जब पुत्र उत्पन्न हुआ तब उसे पृथक्-पृथक् दो खण्डों में विभक्त देखकर उन दोनोंने उसे ले जाकर बाहर फेंक दिया । परन्तु जरा राक्षसीने उन दोनों भागोंको जोड़ दिया ॥ ८३ ॥ इस प्रकार उन दोनों भागोंके जुड़ जानेपर उससे प्रसिद्ध जरासन्ध राजा हुआ। वह अतिशय पराक्रमी होनेसे मनुष्य और देवोंका विजेता होकर सब ही कार्योंके करनेमें समर्थ था ॥ ८४ ॥ जब वे दोनों खण्ड घावसे रहित होते हुए भी जोड़नेपर जुड़कर एक हो गये थे तब हे विप्रो ! मेरा वह घाव से संयुक्त सिर क्यों नहीं जुड़ सकता था, यह मुझे कहिए || ८५|| इस प्रकार जहाँ जरासन्ध और अंगद इन दोनोंके दो-दो भागों में विभक्त शरीर जुड़कर एक हो गया व दोनों जीवित रहे वहाँ मेरा सिर व उससे रहित शेष शरीर ये दोनों जुड़कर एक क्यों नहीं हो सकते हैं ? जरासन्ध और अंगदके समान उनके जुड़ जाने में भी कोई बाधा नहीं होनी चाहिए ॥ ८६ ॥ ८१) व लब्धो । ८२) अ मोहितो । ८४) अ निर्वार्जितनरा; पराक्रमे । ८५ ) अ सव्रणेन कथं मूर्ध्ना; ब द्विज । ८६) व जरासंघो गतो यत्र; भइ द्विषां ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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