________________
२६८
अमितगतिविरचिता सा टिण्टाकोलिके मुक्त्वा सिक्यकं कान्तसंयुतम् । गता प्रार्थयितुं भोज्यमेकवा नगरान्तरे ॥७३ परस्परं महायुद्धे जाते ऽत्र द्यूतकारयोः । एकस्यकः शिरश्छेदं चक्रे खड़गेन वेगतः ॥७४ असिनोत्क्षिप्यमाणेन विलने सति सिक्यके। मूर्धा दधिमुखस्यैत्य लग्नस्तत्र कबन्धके ॥७५ ततो दधिमुखो भूत्वा लग्ननिःसंधिमस्तकः। सर्वकर्मक्षमो जातो नरः सर्वाङ्गसुन्दरः ॥७६ किं जायते न वा सत्यमिदं वाल्मीकिभाषितम् । निगद्यतां मम क्षिप्रं पर्यालोच्य स्वमानसे ॥७७ अशंसिषुद्विजास्तथ्य केनेदं क्रियते ऽन्यथा। उवितोऽनुदितो भानुर्भण्यमानो न जायते ॥७८ खेटेनावाचि तस्यासौ निश्छेदो ऽन्यकबन्धके । यदि निःसंधिको लग्नस्तदा छेदी कथं न मे ॥७९ शितेन करवालेन रावणेन द्विधा कृतः।
तथाङ्गवः कथं लग्नो योज्यमानो हनूमता ॥८० ७८) १. ईदृशं सत्यम् ।
वहाँ वह जुवारियोंके एक अड्डेमें कीलके ऊपर पतिसे संयुक्त उस सीकेको छोड़कर भोजनकी याचनाके लिए नगरके भीतर गयी ॥७३॥
इस बीचमें वहाँ दो जुवारियोंमें परस्पर घोर युद्ध हुआ और उसमें एकने एकके सिरको शीघ्रतापूर्वक तलवारसे काट डाला ।।७४॥
उस समय तलवारके प्रहारमें उस सींकेके कट जानेसे दधिमुखका सिर आकर उस जुवारीके धड़से जुड़ गया ॥७॥
इस प्रकार दधिमुखके मस्तकके उस धड़के साथ बिना जोड़के मिल जानेपर वह सर्वांगसुन्दर मनुष्य होकर सब ही कार्योंके करने में समर्थ हो गया ॥७६॥
मनोवेग कहता है कि ब्राह्मणो! यह वाल्मीकिका कथन क्या सत्य है या असत्य, यह मुझे अपने अन्तःकरणमें यथेष्ट विचारकर शीघ्र कहिए ।।७७॥
इसपर उन ब्राह्मणोंने कहा कि वह सत्य ही है, उसे असत्य कौन कर सकता है। कारण कि उदित हुए सूर्यको अनुदित कहनेपर वह वस्तुतः अनुदित नहीं हो जाता है ।।७।।
- यह सुनकर मनोवेग विद्याधरने कहा कि जब उस दधिमुखका अखण्ड सिर उस धड़से बिना जोड़के मिल गया तब मेरा काटा हुआ सिर क्यों नहीं जुड़ सकता है ॥७९॥
___ इसके अतिरिक्त रावणने तीक्ष्ण तलवारके द्वारा अंगदके दो टुकड़े कर दिये थे। तत्पश्चात् जब उन्हें हनुमानने जोड़ा तो उन दोनोंके जुड़ जानेपर वह अंगद पूर्ववत् अखण्ड कैसे हो गया था ॥८॥ ७३) ब कीलके । ७४) अ एकस्यैकम् । ७८) अ इ द्विजाः सत्यम्; क भानु स्यमानो ।
-
~