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________________ धर्मपरीक्षा-१६ २६७ ताभ्यामुक्तं स ते पुत्र को ऽपि बत्ते न डिक्करीम् । आवां निराकरिष्यावः कान्ताश्रद्धां तथापि ते ॥६६ द्रव्येण भूरिणा ताभ्यां गृहीत्वा निःस्वदेहजाम् । कृत्वा महोत्सवं योग्यं ततो ऽसौ परिणायितः ॥६७ ताभ्यामेष ततो ऽवाचि स्वल्पकालव्यतिक्रमे । नावयोरस्ति वत्स स्वं त्वं स्वां पालय वल्लभाम् ॥६८ ततो दधिमुखेनोक्ता स्ववधूरेहि वल्लभे। वजावः क्वापि जीवावः पितृभ्यां पेल्लितौ' गृहात् ॥६९ ततः पतिव्रतारोप्य सिक्यके दयितं निजम् । बभ्राम धरणीपृष्ठे दर्शयन्ती गृहे गृहे ॥७० पालयन्तीमिमां दृष्ट्वा तादृशं विकलं पतिम् । चक्रिरे महती भक्ति ददानाः कशिपुं'प्रजाः ॥७१ तथा पतिव्रता पूजां लभमाना पुरे पुरे। एकदोज्जयिनी प्राप्ता भूरिटिण्टाकुलां सती ॥७२ ६६) १. पूरयिष्यावः। ६८) १. गते । २. द्रव्यम् । ६९) १. निकालितो। ७१) १. द्रव्यम् । यह सुनकर माता-पिताने उससे कहा कि हे पुत्र! तेरे लिए कोई भी अपनी छोकरी नहीं देता है। फिर भी हम दोनों तेरे कामकी श्रद्धाका निराकरण करेंगे-तेरी स्त्रीविषयक इच्छाको पूर्ण करेंगे ॥६६॥ __ तत्पश्चात् उन दोनोंने बहुत-सा धन देकर एक दरिद्रकी पुत्रीको प्राप्त किया और यथायोग्य महोत्सव करके उसके साथ इसका विवाह कर दिया ॥६॥ फिर कुछ थोड़े-से ही कालके बीतनेपर उन दोनोंने दधिमुखसे कहा कि हे वत्स ! अब हमारे पास द्रव्य नहीं है, अतः तुम अपनी प्रियाका पालन करो ॥६८॥ ___ इसपर दधिमुखने अपनी पत्नीसे कहा कि हे प्रिये ! हम दोनोंको माता-पिताने घरसे निकाल दिया है, इसलिए चलो कहींपर भी जीवन-यापन करेंगे ॥६९|| तब दधिमुखकी वह पतिव्रता पत्नी अपने पतिको एक सींकेमें रखकर घर-घर दिखलाती हुई पृथिवीपर फिरने लगी ॥७०।। इस प्रकार ऐसे विकल-हाथ-पाँव आदि अंगोंसे रहित सिरमात्र स्वरूप-पतिका पालन करती हुई उस दधिमुखकी स्त्रीको देखकर प्रजाजनोंने अन्न-वस्त्र देते हुए उसकी बड़ी भक्ति की ॥७१॥ ___ उपर्युक्त रीतिसे वह सती पतिव्रता प्रत्येक नगरमें जाकर उसी प्रकारसे पूजाको प्राप्त करती हुई एक समय बहुत-से जुआके अड्डोंसे व्याप्त उज्जयिनी नगरीमें पहुँची ।।७२।। ६६) अ क ताभ्यामुक्तः। ६८) ब कालम् । ७२) क ड इ पूजा।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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