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धर्मपरीक्षा-१५
२४५ अनेन हेतुना बन्धो विषादो मानसे ऽजनि। कुठार इव काष्ठानां मर्मणां मम कर्तकः ॥२८ चित्राङ्गवस्ततोऽवोचत् साधो मुञ्च विषण्णताम् । नाशयामि तवोवेगं कुरुष्व मम भाषितम् ॥२९ गृहाण त्वमिमां मित्र मदीयां काममुद्रिकाम् । कामरूपधरो भूत्वा तां भजस्व मनःप्रियाम् ॥३० पश्चाद् गर्भवती जातां स ते वास्यति तां स्वयम् । न दूषितां स्त्रियं सन्तो वासयन्ति निजे गृहे ॥३१ सो ऽगात्तस्यास्ततो गेहं गृहीत्वा काममुद्रिकाम् । स्वयं हि विषये लोलो लब्धोपायो न किं जनः ॥३२ स्वेच्छया स सिषेवे तां' कामाकारधरो रहः ।
मनःप्रियां प्रियां प्राप्य स्वेच्छा हि क्रियते न कैः ॥३३ ३३) १. नारीम् ।
इसी कारण हे मित्र ! मेरे मनमें लकड़ियोंको काटनेवाले कुठारके समान मौंको काटनेवाला यह खेद उत्पन्न हुआ है ।।२८॥
उसके इस विषादकारणको सुनकर चित्रांगद बोला कि हे भद्र ! तुम इस विषादको छोड़ दो। मैं तुम्हारी उद्विग्नताको नष्ट कर देता हूँ। तुम जो मैं कहता हूँ उसे करो ॥२९॥ . हे मित्र ! तुम मेरी इस काममुद्रिकाको लेकर जाओ और इच्छानुसार रूपको धारण करके अपने मनको प्यारी उस कन्याका उपभोग करो ॥३०॥
तत्पश्चात् जब उसके गर्भाधान हो जायेगा तब वह उसे स्वयं ही तुम्हारे लिए प्रदान कर देगा, क्योंकि, सत्पुरुष दूषित स्त्रीको अपने घरमें नहीं रहने दिया करते हैं ॥३१॥
तदनुसार पाण्डु उस काममुद्रिकाको लेकर उक्त कन्याके निवासगृहमें जा पहुंचा। सो ठीक है-मनुष्य विषयका लोलुपी स्वयं रहता है, फिर जब तदनुकूल उपाय भी मिल जाता है तब वह क्या उसका लोलुपी नहीं रहेगा? तब तो वह अधिक लोलुपी होगा ही ॥३२॥ ___ इस प्रकार वहाँ पहुँचकर उसने इच्छानुसार कामदेवके समान आकारको धारण करते हुए उसका स्वेच्छापूर्वक उपभोग किया। ठीक है-मनको प्रसन्न करनेवाली उस प्रियाको एकान्तमें पाकर कौन अपनी इच्छाको चरितार्थ नहीं किया करते हैं ? अर्थात् वैसी अवस्थामें सब ही जन अपनी अभीष्ट प्रियाका उपभोग किया ही करते हैं ॥३३॥ ३१) ब स्वयं for स्त्रियम् । ३२) क ड इ लब्धोपायेन । ३३) अकारकरोरुहः, व कामाकामकरो रहः, क कारमनोहरः; र स्वेच्छया क्रियते न किम् ।