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________________ २४४ अमितगतिविरचिता तस्य सा पाण्डुना दत्ता निःस्पृहीभूतचेतसा । परद्रव्ये महीयांसः सर्वत्रापि पराङ्मुखाः ॥२१ से विलोक्य विलोभवं ते ममन्यत बान्धवम् । अन्यवित्तपराधीना जायन्ते जगदुत्तमाः ॥२२ तमाचष्ट ततः खेटः साधो त्वं मे हि बान्धवः । योऽन्यदीयं सदा द्रव्यं कचारमिव पश्यति ॥ २३ विषण्णो दृश्यसे कि त्वं बन्धो सूचय कारणम् । न गोप्यं क्रियते किचित् सुहृदो हि पटीयसा ॥२४ अभाषिष्ट ततः पाण्डुः साधो सूर्यपुरे नृपः । विद्यते ऽन्धकवृष्टघाख्यस्त्रिदिवे मघवानिव ॥ २५ तस्यास्ति सुन्दरा कन्या कुन्ती मकरकेतुना । ऊर्ध्वकृता पताकेव त्रिलोकजयिना सता ॥२६ सा तेन भूभूता पूर्वं दत्ता मन्मथर्वाधिनी । इदानीं न पुनर्दत्ते विलोक्य मम रोगिताम् ॥२७ २१) १. महानुभावः । २२) १. खेटः । २. क निर्लोभत्वम् । ३. धृतराष्ट्रम् । ४. पराङ्मुखाः । तब मनमें उसकी किंचित् भी अभिलाषा न करके पाण्डुने वह मुद्रिका उसे दे दी । सो ठीक है - महान् पुरुष सभी जगह दूसरेके द्रव्यके विषयमें पराङ्मुख रहा करते हैं- वे उसकी कभी भी इच्छा नहीं किया करते हैं ||२१|| पाण्डुकी निर्लोभ वृत्तिको देखकर चित्रांगदने उसे अपना हितैषी मित्र समझा । ठीक है - दूसरे के धन से विमुख रहनेवाले सज्जन लोकमें उत्तम हुआ ही करते हैं ||२२|| पश्चात् विद्याधरने उससे कहा कि हे सज्जन ! तुम मेरे वह बन्धु हो जो निरन्तर दूसरेके धनको कचराके समान तुच्छ समझा करता है ॥२३॥ फिर वह बोला - हे मित्र ! तुम खिन्न क्यों दिखते हो, मुझे इसका कारण बतलाओ । कारण यह कि चतुर मित्र अपने मनोगत भावको मित्रसे नहीं छिपाया करता है ||२४|| इसपर पाण्डु बोला कि हे सत्पुरुष ! सूर्यपुरमें एक अन्धकवृष्टि नामका राजा है । वह ऐसा प्रभावशाली है जैसा कि स्वर्ग में इन्द्र प्रभावशाली है ||२५|| उसके एक सुन्दर आकृतिको धारण करनेवाली - अतिशय रूपवती - कन्या है । वह ऐसी प्रतीत होती है जैसे मानो तीनों लोकोंके जीत लेनेपर कामदेवने अपने विजयकी पताका ऊपर खड़ी कर दी हो - फहरा दी हो ॥ २६ ॥ कामको वृद्धिंगत करनेवाली उस कन्याको पहले अन्धकवृष्टि राजाने मुझे दे दिया था । किन्तु अब इस समय वह मेरी रुग्णावस्थाको देखकर उसे मुझे नहीं दे रहा है ||२७|| २२) भ ड जगत्युत्तमाः, ब जगतो मताः । २३) क ड इ तमाचष्टे; क ड त्वमेव; अ ब स for हि । २४ ) ब सुहृदा; क पटीयसः। २६) अ सुन्दराकारा कन्या मकर..... त्रिलोकं जयता । २७) ब मन्मथवर्तनी; इ रोगताम् ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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