SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१५] अथ चन्द्रमती कन्या कथं जाते ऽपि देहजे। कथं न जायते माता मदीया मयि कथ्यताम् ॥१ इत्थं निरुत्तरीकृत्य वैदिकानेष खेचरः। विमुच्य तापसाकारं गत्वा काननमभ्यधात् ॥२ अहो लोकपुराणानि विरुद्धानि परस्परम् । न विचारयते को ऽपि मित्र मिथ्यात्वमोहितः ॥३ अपत्यं जायते स्त्रीणां पनसालिङ्गाने कुतः। मनुष्यस्पशंतो वल्ल्यो न फलन्ति कदाचन ॥४ अन्तर्वत्नी कथं नारी नारीस्पर्शन जायते। गोसंगेन न गौदृष्टा क्वापि गर्भवती मया ॥५ २) १. ब्राह्मणान् । २. अब्रूत; क अवोचन् । ३) १. क हे मित्र । ४) १. क पुत्रम् । ५) १. गर्भवती। इस प्रकार चन्द्रमतीके उपर्युक्त वृत्तान्तको कहकर मनोवेगने कहा कि हे विप्रो! चन्द्रमतीके पुत्रके उत्पन्न हो जानेपर भी जैसे वह कन्या रह सकती है वैसे मेरे उत्पन्न होनेपर मेरी माता क्यों नहीं कन्या रह सकती है, यह मुझे कहिए ॥१॥ इस प्रकारसे वह मनोवेग विद्याधर उन वेदके ज्ञाता ब्राह्मण विद्वानोंको निरुत्तर करके तापस वेषको छोड़ते हुए उद्यानमें जा पहुँचा और मित्र पवनवेगसे बोला ॥२॥ हे मित्र ! आश्चर्य है कि लोकमें प्रसिद्ध वे पुराण परस्पर विरोधसे संयुक्त हैं। फिर भी मिथ्यात्वसे मोहित होनेके कारण कोई भी वैसा विचार नहीं करता है ॥३॥ त्रियोंके पनस वृक्षका आलिंगन करनेसे भला सन्तान कैसे उत्पन्न हो सकती है ? नहीं हो सकती है। क्या कभी मनुष्यके स्पर्शसे बेलें फल दे सकती हैं ? कभी नहीं-जिस प्रकार मनुष्य के स्पर्शसे कभी बेलें फल नहीं दिया करती हैं उसी प्रकार वृक्षके स्पर्शसे स्त्री भी कभी सन्तानको उत्पन्न नहीं कर सकती है ॥४॥ स्त्री अन्य स्त्रीके स्पर्शसे गर्भवती कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती। कारण कि मैंने कभी एक गायको दूसरी गायके स्पर्शसे गर्भवती होती हुई नहीं देखा है ॥५॥ १) अ जाते ऽपि दोहदे । २) बमभ्यगात् ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy