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________________ ___ २३९ २३९ धर्मपरीक्षा-१४ गत्वा तत्र तपोधनो ऽमितगतिस्तां प्रार्थ्य भूमीश्वरं लब्ध्वा चन्द्रमतों महागुणवती चक्रे प्रियामात्मनः । आनन्देन विवाह्य यौवनवतों कृत्वा कुमारी पुनः किं प्राणी न करोति मन्मथशभिन्नः समं पञ्चभिः ॥१०१ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां चतुर्दशः परिच्छेदः ॥१४॥ तदनुसार अपरिमित ज्ञानवाले उस उद्दालक मुनिने रघु राजाके पास जाकर उससे चन्द्रमतीकी याचना की और तब उत्तम गुणोंसे संयुक्त उस युवतीको फिरसे कन्या बनाकर आनन्दपूर्वक उसके साथ विवाह कर लिया व उसे अपनी प्रियतमा बना लिया। सो ठीक है-जो प्राणी कामदेवके पाँच बाणोंसे विद्ध हुआ है वह भला क्या नहीं करता है ? अर्थात् वह किसी भी स्त्रीको स्वीकार किया करता है ।।१०१॥ इस प्रकार आचार्य अमितगति विरचित धर्मपरीक्षामें चौदहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१४॥ १०१) अ तस्य for तत्र; अ-क सतां for महा; भविगाह्य for विबाह्य ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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