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________________ २३० अमितगतिविरचिता येषां वेवपुराणेषु ब्रह्महत्या पदे पदे। ते गृह्णीथ कथं यूयं कथ्यमानं सुभाषितम् ॥४८ पुराणं मानवो धर्मः' साङ्गो वेदश्चिकित्सितम्। आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥४९ मनुव्यासवसिष्ठानां वचनं वेदसंयुतम् । अप्रमाणयतः पुंसो ब्रह्महत्या दुरुत्तरा ॥५० हेतुनिवार्यते तत्र दूषणं यत्र विद्यते । कोऽपि त्रस्यति निर्दोषे तप्यमाने ऽपि काञ्चने ॥५१ अवादि वैदिकैर्भद्र वाक्यतः पातकं कुतः। निशातो गदितः खड्गो लुनीते रसनां न हि ॥५२ ४९) १. मनुस्मृतिः । २. वैद्यकशास्त्रम् । ५१) १. विचारम् । २. ब्रह्महत्यादिर्भवेत् । ३. देवादी। ५२) १. ब्राह्मणैः वेदस्य भावो वैदः, तेः वैदिकैः । २. कथनात् । जिनके वेद और पुराणोंमें पद-पद (पग-पग) पर अनेक स्थलोंपर-ब्रह्महत्या (प्राणिहिंसा या ब्राह्मणघात ) पायी जाती है उनके आगे यदि सुन्दर ( यथार्थ ) भाषण भी किया जाये तो भी वे उसे कैसे ग्रहण कर सकते हैं ? अर्थात वे उसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं॥४८॥ ____ आपके यहाँ कहा गया है कि पुराण, मानव धर्म-मनुके द्वारा मनुस्मृतिमें प्ररूपित अनुष्ठान, अंगसहित वेद और चिकित्सा (आयुर्वेद ) ये चारों आज्ञासिद्ध हैं-उन्हें आज्ञारूपसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए। उनका युक्तियोंके द्वारा खण्डन करना योग्य नहीं है॥४९॥ तथा मनु, व्यास और वशिष्ठ इन महर्षियोंके वचन वेदका अनुसरण करनेवाले हैं। इसलिए जो पुरुष उनके कथनको अप्रमाण मानता है उसे अनिवार्य ब्रह्महत्याका दोष लगता है ॥५०॥ .. जहाँ दोष विद्यमान होता है वहाँ युक्तिको रोका जाता है । सो यह ठीक नहीं, क्योंकि सुवर्णके तपाये जानेपर कोई भी विचारक त्रस्त नहीं होता है-उसकी निर्दोषता प्रत्यक्षसिद्ध होनेपर उसके लिए कोई भी परीक्षणका कष्ट नहीं किया करता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सुवर्णके तपाये जानेपर किसीको भी उसकी निर्दोषतामें सन्देह नहीं रहता है। उसी प्रकार पुराण एवं धर्म आदिकी यक्तियों द्वारा परीक्षा हो जानेपर उनकी भी निर्दोषतामें किसीको सन्देह नहीं रह सकता है, अतएव उनके विषयमें युक्तियोंका निषेध करना उचित नहीं कहा जा सकता है ॥५१॥ मनोवेगके इस कथनको सुनकर वेदको प्रमाण माननेवाले वे ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! केवल वचनमात्रसे दोषके प्रदर्शित करनेपर वस्तुतः दोष कहाँसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है। उदाहरणार्थ-'तलवार तीक्ष्ण है' ऐसा उच्चारण करनेसे ही वह जीभको नहीं काट डालती है ॥५२॥ ५०) अ ड अप्रमाणं यतः । ५१) अ क ड ताप्यमाने; अ ब न for अपि ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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