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धर्मपरीक्षा-१४ ऋषीणां वचसानेन ज्ञात्वा मातुरदोषताम् । एकान्तस्थस्तपः कुर्वन् वत्सरं तापसाश्रमे ॥४१ . महीमटाट्यमानो ऽहं तीर्थयात्रापरायणः। : ततः पत्तनमायातो युष्मदोयमिदं द्विजाः ॥४२ आचचक्ष ततो विप्राः कोपविस्फुरिताधराः । ईदृशं शिक्षितं दुष्ट क्वासत्यं जल्पितं त्दया ॥४३ कृत्वैकत्रानृतं सर्व नूनं त्वं वेधसा कृतः। असंभाव्यानि कार्याणि परथा भाषसे कथम् ।।४४ आचष्टे स्म ततः खेटो विप्राः किं जल्पथेदृशम् । युष्माकं किं पुराणेषु कार्यमीद न विद्यते ॥४५ ततोऽभाष्यत भूदेवैरीदृशं यदि वीक्षितम् । त्वया वेदे पुराणे वा क्वचिद्भद्र तदा वद ॥४६
आख्यत्वेटो द्विजा वच्मि परं युष्मदबिभेम्यहम् ।
विचारेण विना यूयं चेद् गृह्णीयाखिलं वचः ॥४७ कर लेनेमें कोई दोष नहीं है । इस प्रकार कारणके रहते हुए स्त्रियोंके उन पाँच पतियों तकके स्वीकार करने पर कोई दोष नहीं होता। यह व्यास आदि महर्षियोंका कहना है ।।३६-४०॥
ऋषियोंके इस उत्तरसे अपनी माताकी निर्दोषताको जानकर मैं एक वर्ष तक तप करता हुआ उसी तापसाश्रममें स्थित रहा ॥४१॥
तत्पश्चात् हे ब्राह्मणो ! मैं तीर्थयात्रामें तत्पर होकर पृथिवीपर विचरण करता हुआ आपके इस नगरमें आया हूँ ॥४२॥
तापस वेषधारी उस मनोवेगके इस आत्म-वृत्तान्तको सुनकर क्रोधके वश अधरोष्ठको कॅपाते हुए वे ब्राह्मण बोले कि अरे दुष्ट! तूने इस प्रकारका असत्य बोलना कहाँसे सीखा है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि निश्चयतः समस्त असत्यको एकत्र करके ही ब्रह्मदेवने तुझे निर्मित किया है। कारण कि यदि ऐसा न होता तो जो कार्य सर्वथा असम्भव है उनका कथन तू कैसे कर सकता था ? नहीं कर सकता था ।।४३-४४॥
ब्राह्मणोंके इस कथनको सुनकर मनोवेग विद्याधर बोला कि हे ब्राह्मणो! ऐसा आप क्यों कहते हैं, क्या आपके पुराणोंमें इस प्रकारके कार्यका उल्लेख नहीं है ? अवश्य है ॥४५।।
___ इसपर ब्राह्मणोंने कहा कि हे भद्र ! तुमने यदि कहीं वेद अथवा पुराणमें ऐसा उल्लेख देखा है तो उसे कहो ॥४६॥
इसपर मनोवेग बोला कि हे विप्रो ! मैं जानता हूँ व कह भी सकता हूँ। परन्तु जो आप लोग विचार करनेके विना ही सब कथनको ग्रहण करते हैं उनसे मैं डरता हूँ ॥४७॥
४१) ब एकान्तस्थम् । ४२) अ महीमठाद्यमानो; ब युष्मदीयमिति । ४३) ब दुष्टं, ब क जल्पितुम् । ४४) क कुतः for कृतः । ४६) क भाषितर्भूदेवै । ४७) अवेनि for वच्मि; अ ब क ड परं तेभ्यो बिभे; अ ये गृह्णीयात्खिलं, ब ये गृह्णीथाखिलं, क यदगृहीथाखिलं, ड चेदगृह्णीयाखिलम् ।।: ..