SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ अमितगतिविरचिता एते नष्टा यतो' दोषा भानोरिव तमश्चयाः । स स्वामी सर्वदेवानां पापनिदलनक्षमः ॥७८ ब्रह्मणा यज्जलस्यान्तर्बीज' निक्षिप्तमात्मनः । बभूव बुबुदस्तस्मादेतस्माज्जगदण्डकम् ॥७९ तंत्र द्वेधा कृते जाता लोकत्रयव्यवस्थितिः। यद्येवमागमे प्रोक्तं तदा तत्व स्थितं जलम् ॥८० निम्नगापर्वतक्षोणीवृक्षाद्युत्पत्तिकारणम् । समस्तकारणाभावे' लभ्यते व विहायसि ॥८१ एकस्यापि शरीरस्य कारणं यत्र दुर्लभम् । त्रिलोककारणं मूर्त द्रव्यं तत्र व लभ्यते ॥८२ ७८) १. यस्मात् कारणात्, देवात् । ७९) १. जलमध्ये । २. वीर्यम् । ३. बीजात् । ८०) १. अण्डके । २. जलम् । ८१) १. कार्यकारणाभावे । २. शून्याकाशे। ८२) १. शून्याकाशे । २. क ब्रह्मणि । जिस प्रकार सूर्यके पाससे स्वभावतः अन्धकार दूर रहता है उसी प्रकार जिस महापुरुषके पाससे उपर्युक्त अठारह दोष दूर हो चुके हैं वह सब देवोंका प्रभु होकर पापके नष्ट करने में समर्थ है-इसके विपरीत जिसके उक्त दोष पाये जाते हैं वह न तो देव हो सकता है और न पापको नष्ट भी कर सकता है ॥७८॥ 'ब्रह्माने जलके मध्यमें जिस अपने बीज (वीर्य) का क्षेपण किया था वह प्रथमतः बुबुद हुआ। पश्चात् उसके दो भागोंमें विभक्त किये जानेपर तीन लोकोंकी व्यवस्था हुई। इस प्रकार जब आगममें निर्दिष्ट किया गया है तब यहाँ एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित होता है कि उस लोककी उत्पत्तिके पूर्व में वह जल-जिसके मध्यमें ब्रह्माने वीर्यका क्षेपण किया था-कहाँपर अवस्थित था ॥७९-८०॥ ___ लोककी उत्पत्तिके पूर्व में जब कुछ भी नहीं था तब समस्त-निमित्त व उपादान स्वरूप -कारणोंके अभावमें नदी, पर्वत, पृथिवी एवं वृक्ष आदिकी उत्पत्तिके कारण शून्य आकाशमें कहाँसे प्राप्त होते हैं ? ॥८॥ जिस शून्य आकाशमें एक ही शरीरकी उत्पादक सामग्री दुर्लभ है उसमें भला तीनों लोकोंकी उत्पत्तिका कारणभूत मूर्तिक द्रव्य-निमित्त व उपादान स्वरूप कारणसामग्री-कहाँसे प्राप्त हो सकती है ? उसकी प्राप्ति सर्वथा असम्भव है ॥८२॥ ७८) ब तेन नष्टा। ७९) अ क ड इजलस्यान्ते; अस्तस्मादद्वितयं जगदं ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy