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________________ २१६ अमितगतिविरचिता आत्मासंभाविनी' भूति विलोक्य परभाविनीम् । ज्ञानशून्यस्य जीवस्य विस्मयो जायते परः॥६७ सर्वामध्यमये हेये शरीरे कुरुते रतिम् ।। बीभत्से कुथिते नीचः सारमेयो यथा शवे ॥६८ व्यापारं कुर्वतः खेदो देहिनो देहमर्दकः। जायते वीर्यहीनस्य विकलीकरणक्षमः ॥६९ श्रमेण दुनिवारेण देहो व्यापारभाविना। तापितः स्विद्यते क्षिप्रं घृतकुम्भ इवाग्निना ॥७० निद्रया मोहितो जीवो न जानाति हिताहितम् । सर्वव्यापारनिर्मुक्तः सुरयेवे विचेतनः ॥७१ हरः कपालरोगातः शिरोरोगी हरिमंतः। हिमेतररुचिः' कुष्टी पाण्डुरोगी विभावसुः ॥७२ ६७) १. परां विभूतिम् । २. परोत्पन्नाम् । ७०) १. सन् । ७१) १. मद्यपानेन; क मदिरया। ७२) १. सूर्यः । २. अग्निः । १४. विस्मय-जो विभूति अपने लिए कभी प्राप्त नहीं हो सकी ऐसी दूसरेकी विभूति को देखकर मूर्ख मनुष्यको अतिशय आश्चर्य हुआ करता है ॥६॥ १५. रति-समस्त अपवित्र पदार्थोंसे-रस, रुधिर, हड्डी व चर्बी आदि घृणित धातुओंसे-निर्मित जो दुर्गन्धमय शरीर घृणास्पद होनेसे छोड़नेके योग्य है उसके विषयमें नीच मनुष्य इस प्रकारसे अनुराग करता है जिस प्रकार कि कुत्ता किसी सड़े-गले शवकोमृत शरीरको-पाकर उसमें अनुराग किया करता है ॥६८॥ १६. खेद-व्यापार करते हुए निर्बल प्राणीके शरीरको मदित करनेवाला जो खेद उत्पन्न होता है वह उसे विकल करने में समर्थ होता है-उससे वह व्याकुलताको प्राप्त होता है ।।६९॥ १७. स्वेद-व्यापारसे उत्पन्न हुए दुर्निवार परिश्रमसे सन्तापको प्राप्त हुआ शरीर पसीनेसे इस प्रकार तर हो जाता है जिस प्रकार अग्निसे सन्तापको प्राप्त हुआ घीका घड़ा पिघले हुए घीसे तर हो जाता है ॥७०।। १८. निद्रा-जिस प्रकार मद्यसे मोहित हुआ प्राणी विवेकसे रहित होकर हित व अहितको नहीं जानता है उसी प्रकार निद्रासे मोहित हुआ प्राणी-उसके वशीभूत हुआ जीव-अचेत होकर सब प्रकारकी प्रवृत्तिसे मुक्त होता हुआ अपने हित व अहितको नहीं जानता है ॥७॥ . महादेव कपालरोगसे पीड़ित, विष्णु सिरकी वेदनासे व्याकुल, सूर्य कुष्ठरोगसे व्याप्त और अग्नि पाण्डुरोगसे ग्रस्त माना गया है ॥१२॥ ६८) इ कुत्सिते नीचः; इ यथा स वै । ६९) भकुर्वते खेदो।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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