SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा - १३ श्लेष्ममारुतपित्तोत्थैस्तापितो' रोगपावकैः । कदाचिल्लभते सौख्यं न पेरायत्तविग्रहः ॥६१ कथं मित्रं कथं द्रव्यं कथं पुत्राः कथं प्रियाः । कथं ख्यातिः कथं प्रीतिरित्थं ध्यायति चिन्तया ॥६२ श्वश्रवासाधिकासा' गर्भे कृमिकुलाकुले । जन्मिन जायते जन्म भूयो भूयो ऽसुखावहम् ॥६३ आदेशं कुरुते यस्य शरीरमपि नात्मनः । कस्तस्य जायते वश्यो जरिणो हतचेतसः ॥६४ नामाप्याकणितं यस्ये चित्तं कम्पयतेतराम् । साक्षादुपागतो मृत्युः स न कि कुरुते भयम् ॥६५ उपसर्गे महारोगे पुत्रमित्रधनक्षये । विषादः स्वल्पसत्त्वस्य जायते प्राणहारकः ॥६६ ६१) १. सन् ; क पीडित । २. परवशात् । ६३) १. दुःखे । २. संसारिणः जीवस्य । ३. पुनः पुनः । ६५) १. मृत्योः । २. अतिशयेन । ३. प्राप्तः । ६६) १. सति । २. अशक्तेः । २१५ ८. रोग- कफ, वात और पित्तके प्रकोप से उत्पन्न हुई रोग-रूप अग्निसे सन्तापित प्राणी शरीर की परतन्त्रताके कारण कभी भी सुखको प्राप्त नहीं होता || ६१ ॥ ९. चिन्ता - चिन्ताके वशीभूत हुआ प्राणी मेरा मित्र कैसे है, धन किस प्रकार से प्राप्त होगा व कैसे वह सुरक्षित रहेगा, पुत्र किस प्रकार से मुझे सन्तुष्ट करेंगे, अभीष्ट प्रियतमा आदि जन किस प्रकार से मेरे अनुकूल रह सकते हैं, मेरी प्रसिद्धि किस प्रकारसे होगी, तथा अन्य जन मुझसे कैसे अनुराग करेंगे, इस प्रकार से निरन्तर चिन्तन किया करता है ॥ ६२ ॥ १०. जन्म - जो गर्भाशय नरकावास से भी अधिक दुखप्रद एवं अनेक प्रकारके क्षुद्र कीड़ोंके समूहोंसे व्याप्त रहता है उसके भीतर प्राणीका अतिशय कष्टदायक जन्म बार-बार हुआ करता है ॥६३॥ ११. जरा - नष्टबुद्धि जिस वृद्ध पुरुषका अपना शरीर ही जब आज्ञाका पालन नहीं करता है -- उसके वशमें नहीं रहता है - तब भला दूसरा कौन उसके वशमें रह सकता है ? कोई नहीं - - वृद्धावस्था में प्राणीके अपने शरीर के साथ ही अन्य कुटुम्बी आदि भी प्रतिकूल हो जाया करते हैं || ६४ || १२. मरण - जिस मृत्यु के नाममात्र के सुनने से भी चित्त अतिशय कम्पायमान हो उठता है वह मृत्यु प्रत्यक्षमें उपस्थित होकर क्या भयको उत्पन्न नहीं करेगी ? अवश्य करेगी ॥ ६५ ॥ १३. विषाद - किसी उपद्रव या महारोगके उपस्थित होनेपर अथवा पुत्र, मित्र व धनका विनाश होनेपर अतिशय हीनबलयुक्त ( दुर्बल) मनुष्यको जो विषाद (शोक ) उत्पन्न होता है वह उसके प्राणोंका घातक होता है || ६६ || ६३) इधिकेऽसा ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy