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अमितगतिविरचिता
विलासो 'विभ्रमो हासः संभ्रमः कौतुकादयः । तृष्णया पीड्यमानस्य नश्यन्ति तरसाखिलाः ॥५५ वातेनेव हतं पत्रं शरीरं कम्पते ऽखिलम् । वाणी पलायते भीत्या विपरीतं विलोक्यते ॥५६ दोषं गृह्णाति सर्वस्य विना कार्येण रुष्यति । द्वेषाकुलो न कस्यापि मन्यते गुणमस्तधीः ॥५७ पञ्चाक्षविषयासक्तः कुर्वाणः परपीडनम् । रागातुरमना नीचो युक्तायुक्तं न पश्यति ॥५८ कान्ता मे मे सुता मे स्वं गृहं मे मम बान्धवाः । इत्थं मोहपिशाचेन सकलो मुह्यते जनः ॥५९
ज्ञानजातिकुलैश्वर्यं तपोरूपबलादिभिः । पराभवति दुर्वृत्तः समदेः सकलं जनम् ॥ ६०
५५) १. हावो मुखविकारः स्याद् भावः स्याच्चित्तसंभवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयोः ॥
६०) १. पीडयति; क अपमानयति । २. पुरुषः ।
२. तृषा - प्यास से पीड़ित प्राणीके विलास ( दीप्ति या मौज ), विभ्रम ( शोभा ) हास्य, सम्भ्रम ( उत्सुकता ) और कुतूहल आदि सब ही शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ॥ ५५ ॥
३. भय-भयके कारण प्राणीका सब शरीर इस प्रकारसे काँपने लगता है जिस प्रकार कि वायुसे ताड़ित होकर वृक्षका पत्ता काँपता है, तथा भयभीत प्राणीका वचन भाग जाता है - वह कुछ बोल भी नहीं सकता है व विपरीत देखा करता है ॥५६॥
४. द्वेष- द्वेषसे व्याकुल हुआ दुर्बुद्धि प्राणी सबके दोषोंकों ग्रहण किया करता है, प्रयोजनके बिना भी दूसरोंपर क्रोध करता है, तथा गुणको नहीं मानता है ॥५७॥
५. राग - जिसका मन रागसे व्याकुल किया गया है वह नीच प्राणी पाँचों इन्द्रियोंके विषयों में आसक्त रहकर दूसरोंको पीड़ा पहुँचाता है व योग्य-अयोग्यका विचार नहीं किया करता है ॥५८॥
६. मोह—'यह स्त्री मेरी है, यह पुत्री मेरी है, यह घर मेरा है, और ये बन्धुजन मेरे हैं', इस प्रकार मोहरूप पिशाचके द्वारा सब ही प्राणी मोहित किये जाते हैं ||१९||
७. मद-मानसे उन्मत्त दुराचारी मनुष्य ज्ञान, जाति ( मातृपक्ष ), कुल ( पितृपक्ष ), प्रभुत्व, तप, सौन्दर्य और शारीरिक बल आदिके द्वारा अन्य सब ही प्राणियोंको तिरस्कृत किया करता है ॥६०॥
५५) अ हास्यम् ; ब क संभ्रमों विनयो नयः । ५६ ) अ ब क विलोकते । ५९ ) अ सुतसुता for मे सुता; ब मे ऽर्था for मे स्वम्; इ बान्धवः; अ क ड इ मोह्यते । ६० ) अज्ञाति for जाति ।