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अमितगतिविरचिता
अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि वीक्षितम् । जानानैः पण्डितैर्नूनं वृत्तान्तं नृपमन्त्रिणोः * ॥७३ प्रत्येष्यथे यतो यूयं वाक्यं नैकाकिनो मम । कथयामि ततो नाहं पृच्छद्यमानो ऽपि माहनाः ॥७४ 'जल्पिततो भद्र कि बाला वयमीदृशाः । घटमानं वचो युक्त्या न जानीमो यतः स्फुटम् ॥७५ अभाषिष्ट ततः खेटो यूयं यदि विचारकाः । निगदामि तदा स्पष्टं श्रूयतामेकमानसैः ॥७६ श्रावको मुनिदत्तो ऽस्ति श्रीपुरे स पिता मम । एकस्यर्षेरहं तेन पाठनाय समर्पितः ॥७७ प्रेषितो जलमानेतुं समयहं कमण्डलुम् । एकदा मुनिना तेन रममाणश्विरं स्थितः ॥७८ एत्य छात्ररहं प्रोक्तो नश्य रुष्टो गुरुस्तव । क्षिप्रमागत्य भद्रासौ करिष्यति नियन्त्रणम् ॥७९
७३) १. अप्रतीतम् । २. क न विश्वासं कुर्वंतोः । ७४) १. मनिष्यथ । २. विप्राः ।
७५) १. विप्राः ।
७९) १. बन्धनम् ।
मनोवेग कहता है कि है विप्रो ! जो विद्वान् इस राजा और मन्त्रीके वृत्तान्तको जानते हैं उन्हें प्रत्यक्षमें भी देखी गयी घटनाको, यदि वह विश्वासके योग्य नहीं है तो, नहीं कहना चाहिए ॥७३॥
हे ब्राह्मणो ! मैं चूँकि अकेला हूँ, अतएव आप लोग मेरे कथनपर विश्वास नहीं करेंगे। इसी कारण आपके द्वारा पूछे जानेपर भी मैं कुछ कहना नहीं चाहता हूँ ॥ ७४ ॥
पर वे ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! क्या हम लोग ऐसे मूर्ख हैं जो युक्तिसे संगत वचनको स्पष्टतया न जान सकें ॥ ७५ ॥
इस प्रकार उन ब्राह्मणोंके कहनेपर मनोवेग विद्याधर बोला कि यदि आप लोग विचारशील हैं तो फिर मैं स्पष्टतापूर्वक कहता हूँ, उसे स्थिरचित्त होकर सुनिए || ७६॥
श्रीपुरमें एक मुनिदत्त नामका श्रावक है । वह मेरा पिता है। उसने मुझे पढ़ने के लिए एक ऋषिको समर्पित किया था ||७७ ||
एक दिन ऋषिने मुझे कमण्डलु देकर जल लाने के लिए भेजा । सो मैं बहुत समय तक खेलता हुआ वहीं पर स्थित रहा ||७८ ||
तत्पश्चात् दूसरे छात्रोंने आकर मुझसे कहा कि हे भद्र ! गुरुजी तुम्हारे ऊपर रुष्ट हुए हैं, तुम यहाँसे भाग जाओ । अन्यथा, वे शीघ्र ही आकर तुम्हें बन्धनमें डाल देंगे ॥ ७९ ॥
७४) इ प्रत्येष्टव्यं यतो वाक्यं यूयं ड तयोर्ययं; इ ब्राह्मणाः । ७९ ) अ अन्य for एत्य; अ नियन्त्रणाम् ।