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________________ प्रस्तावना तिण्णि वि जोग्ग जेण तं सीयइ, चउमुह-मुहे थिय ताव सरासइ । जो सयंभु सा देउ पहाणउ, अह कह लोयालोय-वियाणउ । पुप्फयंतु णवि माणुसु वुच्चइ, जो सरसइए कयावि ण मुच्चइ । ने एवंविह हउ जडु झांणउ, तह छंदालंकार-विहूणउ कव्वु करंतु केम णवि लज्जमि, तह विसेस पिय-जणु किह रंजमि । तो वि जिणिंद-धम्म-अणुराएं, वुह-सिरि-सिद्धसेण सुपसाएं। करमि सयं जि णलिणि-दल-थिउजलु, अणुहरेइ णिरुवमु मुत्ताहलु । घता-जा जयरामें आसि विरइय गाह पवंधि । साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धडिया वंधि ॥ मालूम होता है सिद्धसेन हरिषेणके गुरु रहे हैं और इसीलिए सिद्धसेन अन्तिम सर्गमें भी इस प्रकार स्मरण किये गये हैं सन्धि ११, कड़वक २५घत्ता-सिद्धसेण पय वंदहिं दुक्किउ जिंदहि जिण हरिसेण णवंता। तहि थिय ते खग-सहयर कय-धम्मायर विविह सुहई पावंता ॥ दोनों धर्मपरीक्षाओंकी तुलना इन तथ्योंको ध्यानमें रखते हुए हरिषेण और अमितगतिके ग्रन्थोंका नाम एक ही है और एक रचना दूसरीसे केवल २६ वर्ष पहलेकी है, यह अस्वाभाविक न होगा कि हम दोनों रचनाओंकी विस्तारके साथ तुलना करने के लिए तत्पर हों । दोनों ग्रन्थोंमें उल्लेखनीय समानता है और जहां तक घटनाचक्रके क्रमका सम्बन्ध है अमितगतिकी धर्मपरीक्षाके विभिन्न सर्ग हरिषेणकृत धर्मपरीक्षाकी विभिन्न सन्धियोंकी तुलनामें स्थूल रूपसे विभक्त किये जा सकते हैं-हरि. १-अमित. १,१७-३,४३; हरि. २-अमित., ३,४४-७, १८; हरि. ३-अमित. ७, १९-१०, ५१; हरि. ४=अमित., १०, ५२-१२, २६; हरि, ५-अमित. २१, २७-१३; हरि. ६ । हरिषेणने लोकस्वरूपका जो विस्तृत वर्णन किया है वह उस कोटिका अमितगतिकी रचनामें एक जगह नहीं है। हरि. ७=अमित. १४, १-१५ १७; हरि. ८=अमित. १५, १८ आदि; हरि. ९-अमित. १६, २१ इत्यादि हरि. १० कल्पवृक्षोंके वर्णनके लिए अमितगतिकी धर्मपरीक्षाका १८वां सगं देखिए और हरि. ११=अमित. २०, कुछ प्रारम्भिक पद्य । कुछ स्थानोंमें ठीक-ठीक समानता इस कारण नहीं मालूम की जा सकती है कि दोनों रचनाओंमें एक ही स्थानपर शिक्षाप्रद और सैद्धान्तिक चर्चाएँ समान कोटिको नहीं पायी जाती। लोकस्थितिके जो विवरण हरिषेणने सातवीं सन्धिमें दिये हैं उन्हें अमितगतिने उन्हींके समानान्तर स्थानपर सम्मिलित नहीं किया है और न उन्होंने अपनी रचनामें कहीं भी उतने विस्तारके साथ उन्हें दिया है । हरिषेणने आठवें सर्गके कतिपय कड़वकोंमें रामचरितके सम्बन्धमें कुछ जैन शास्त्रानुसारी कथाएँ लिखी हैं। लेकिन अमितगति इन कथाओंको बिलकुल उड़ा गये हैं। इसी कारण हरिषेणने ११वें सर्गमें अपने सिद्धान्तोंसे अनुरंजित रात्रिभोजन-विरमणके सम्बन्धमें जो एक विशेष कथा दी थी वह भी उन्होंने कुछ सैद्धान्तिक निरूपणोंके साथ बिलकुल उड़ा दी है, किन्तु आचारशास्त्रके अन्य नियमोंपर उन्हीं प्रकरणोंमें सबसे अधिक उपदेशपूर्ण विवेचन किया है। लेकिन इधर-उधरके कुछ इस प्रकारके प्रकरणोंको छोड़कर अमितगतिको रचनासे कुछ ऐसे पद्योंका निर्देश किया जा सकता है जो हरिषेणके कड़वकोंसे बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। हरिषेणने अपने ग्रन्थका जो ग्यारह
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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