________________
१८
सन्धि ११, कड़वक २६
धर्मं परीक्षा
मेवाड देसि जण संकुलि, सिरि उजउर- णिग्गय धक्कड कुलि । पाव -करिंद कुंभ-दारुण-हरि, जाउ कलाहिं कुसलु णामे हरि । तासु पुत्त पर - णारि सहयरु, गुण- गण - णिहि कुल-गयण - दिवायरु । गोवढ णामे उप्पण्णउ, जो सम्मत्त रयण-संपुण्णउ |
तहो गोवड्ढणासु पिय गुण वइ, जा जिणवर-पय णिच्च वि पणवइ । जणि हरिसेण णाम सुउ, जो संजाउ विवुह कइ - विस्सुउ । सिरि चित्तउडु चवि अचलउरहो, गउ णिय- कज्जें जिण -हर- पडरहो । तह छंदालंकार पसाहिय, धम्मपरिक्ख एह तें साहिय । जे मज्झत्थ-मय आयणहि ते मिच्छत्त-भाउ अवगणहि । तें सम्मत्त जेण मलु खिज्जइ, केवलणाणु ताण उप्पज्जइ । घत्ता - तो पुणु केवलणाणहो णेय पमाणहो जीव-पएसहि सुहडिउ । वाहा- रहिउ अनंत अइसयवंत मोक्ख सुक्ख भलु पयडियउ । सन्धि ११, कडवक २७
विक्कम - णिव परिवत्तिय कालए, ववगयए वरिस सहस चउ तालए । इय उपणु भविय - जण - सुहयरु, डंभ रहिय-धम्मासव -सरयरु ।
बुध हरिषेणने इस ग्रन्थ की रचनाका कारण इस प्रकार बतलाया है— कि एक बार मेरे मनमें आया कि यदि कोई आकर्षक पद्य रचना नहीं की जाती है तो मानवीय बुद्धिका प्राप्त होना बेकार है । और यह भी सम्भव है कि इस दिशा में एक मध्यम बुद्धिका आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जैसा कि संग्रामभूमिसे भागा हुआ कापुरुष होता है । फिर भी अपनी छन्द और अलंकार सम्बन्धी कमजोरी जानते हुए भी उन्होंने जिनेन्द्र धर्मके अनुराग और सिद्धसेनके प्रसादसे प्रस्तुत ग्रन्थ लिख ही डाला । इस बातकी झिझक न रखी कि हमारी रचना किस दृष्टिसे देखी जायेगी ।
४. हरिषेणने अपने पूर्ववतियोंमें चतुर्मुख, स्वयम्भू और पुष्पदन्तका स्मरण किया है । वे लिखते हैंचतुर्मुखका मुख सरस्वतीका आवासमन्दिर था । स्वयम्भू लोक और अलोकके जाननेवाले महान् देवता थे और पुष्पदन्त वह अलौकिक पुरुष थे जिनका साथ सरस्वती कभी छोड़ती ही नहीं थी । हरिषेण कहते हैं कि इनकी तुलना में मैं अत्यन्त मन्दमतिका मनुष्य हूँ । पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन् ९६५ में पूर्ण किया है । स्वयम्भूकी अपेक्षा चतुर्मुख पूर्ववर्ती हैं ।
धर्मपरीक्षा, पहले जयरामने गाथा - छन्द में लिखी थी और हरिषेणने उसीको पद्धड़िया छन्दमें लिखा है ।
उपरिलिखित बातें प्रारम्भके कड़वकमें पायी जाती हैं, जो इस प्रकार हैं
सन्धि १, कड़वक १ -
सिद्धि-पुरंधि िकंतु सुद्धे तणु-मण-वयणें । भत्तिय जिणु पणवेवि चितिउ वुह - हरिसेणें ॥
- बुद्धि कि किज्जइ, मणहरु जाइ कव्वु ण रइज्जइ । तं करंत अवियाणिय आरिस, हासु लहह भड रणिगय पोरिस ।
मुहं कव्वविरयणि सयंभुवि, पुप्फयंतु अण्णाणु णिसुंभिवि ॥