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________________ धर्मपरीक्षा सन्धियोंमें विभाजन किया है इसकी अपेक्षा अमितगतिका अपनी रचनाको २२ सर्गों में विभक्त करना अधिक अस्वाभाविक है। जहां तक कथानककी घटनाओं और उनके क्रमका सम्बन्ध है दोनों रचनाओं में बहुत समानता है। विचार एक-से हैं और उन्हें उपस्थित करने के तरीके में भी प्रायः अन्तर नहीं है । नैतिक नियमों, लोकबुद्धिसे पूर्ण हितकर उपदेशों तथा सारगर्भित विवेचनोंके निरूपणमें अमितगति विशेष रूपसे सिद्धहस्त हैं। भोग-विलास तथा सांसारिक प्रलोभनोंकी निन्दा करने में वे अधिक वाक्पटु हैं। गृहस्थ और मुनियों के लिए जैन आचारशास्त्रके नियमानुसार जीवनके प्रधान लक्ष्यको प्रतिपादन करनेका कोई भी अवसर वे हाथसे नहीं जाने देते। यहाँ तक कि नीरस, सैद्धान्तिक विवेचनोंको भी वे धारावाहिक शैली में सजा देते हैं। इस प्रकारके प्रकरणोंके प्रसंगमें हरिषेणकी धर्मपरीक्षाकी अपेक्षा अमितगतिकी रचनामें हमें अधिक विस्तार देखनेको मिलता है। यद्यपि दोनोंका कथानक एक-सा है फिर भी सैद्धान्तिक और धार्मिक विवेचनोंके विस्तारमें अन्तर है। अमितगतिके वर्णन उच्चकोटिके संस्कृत कलाकारोंकी सालंकार कविताके नमूने हैं, जबकि हरिषेणके वही वर्णन पुष्पदन्त सरीखे अपभ्रंश कवियोंके प्रभावसे प्रभावित हैं। इसलिए नगर आदिके चित्रणमें हमें कोई भी सदृश भावपूर्ण विचार और शब्द दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । यद्यपि मधबिन्द दष्टान्तके वर्णनमें कुछ विभिन्न प्रकार अंगीकार किया गया है। फिर भी उसके विवरण मिलते-जुलते हैं। यदि उनका परम्परागत सिद्धान्तोंसे समन्वय न किया जाये तो यह सम्भव है कि कुछ प्रकरणोंमें-से एक-सी युक्तियाँ खोज निकाली जायें। [१] हरिषेण १, १९ तं अवराहं खमदु वराहं । तो हसिऊणं मइवेएणं । भणियो मित्तो तं परधुत्तो । माया-हिय-अप्पाणे हिय । [१] अमितगति ३, ३६-३७ यत्त्वां धर्ममिव त्यक्त्वा तत्र भद्रं चिरं स्थितः । क्षमितव्यं ममाशेषं दुविनीतस्य तत्त्वया ॥ उक्तं पवनवेगेन हसित्वा शुद्धचेतसा । को धूर्तो भुवने धूर्तर्वञ्च्यते न वशंवदैः ।। [२] हरिषेण २, ५ इय दुण्णि वि दुग्गय-तणय-तणं । गिण्हेविणु लक्कड-भारमिणं । आइय गुरु पूर णिएवि मए । वायउ ण उ जायए वायमए । [२] अमितगति ३, ८५ तं जगाद खचराङ्गजस्ततो भद्र ! निर्धनशरीरभूरहम् । आगतोऽस्मि तृणकाष्ठविक्रयं कर्तुमत्र नगरे गरीयसि । [३] हरिषेण २. ११ णिद्धण जाणेविणु जारएहिं । तप्पिय-आगमणास किएहिं । मुक्की झड त्ति झाडे वि केम । परिपक्क पंथि थिय वोरि जेम । णिय-पिय-आगमणु मुणंतियाए । किउ पवसिय-पिय-तिय-वेसु ताए ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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