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________________ धर्मपरीक्षा-२ यो जल्पत्यावयोः पूर्व हार्यन्ते तेन निश्चितम् । कृशोदरि दशापूपाः सपिर्गुडविलोडिताः ॥४६ ततो वल्लभया प्रोक्तमेवमस्तु विसंशयम् । कुलीनाभिर्वचो भर्तुन क्वापि प्रतिकूल्यते ॥४७ आवयोः स्थितयोरेवं प्रतिज्ञारूढयोः सतोः । प्रविश्य सकलं द्रव्यं चौरेणाहारि मन्दिरम् ॥४८ न तेने किंचन त्यक्तं गृह्णता द्रविणं गृहे। छिद्रे हि जारचौराणां जायते प्रभविष्णुतो ॥४९ प्रियायाः क्रष्टुमारब्धे स्तेनेने परिधानके। जल्पितं रे दुराचार त्वं किमद्याप्युपेक्षसे ॥५० आकृष्टे मे ऽन्तरीयेऽपि त्वं जीवसि कथं शठ । जीवितव्यं कूलीनानां भार्यापरिभवावधि ॥५१ www ४७) १. उल्लङ्घ्य ते; क न निषिद्धि[ध्य]ते । ४९) १. चौरेण । २. शक्तिः । ५०) १. चौरेण । २. तया भार्यया। ३. क अवलोक्यते । प्रिये ! हम दोनोंमें-से जो कोई पहले भाषण करेगा वह निश्चयतः घी और गुड़से परिपूर्ण दस पूवोंको हारेगा। उसे सुस्वादु दस पूवे देने पड़ेगे॥४५-४६॥ इसपर उसकी प्रिय पत्नीने कहा कि ठीक है, निःसन्देह ऐसा ही हो। सो यह उचित ही है, क्योंकि कुलीन स्त्रियाँ कभी पतिके वचनके विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं किया करती हैं ॥४७॥ इस प्रकार हम दोनों प्रतिज्ञाबद्ध होकर मौनसे स्थित थे। उधर चोरने घरमें प्रविष्ट होकर समस्त धनका अपहरण कर लिया ॥४८॥ उसने धनका अपहरण करते हुए घरके भीतर कुछ भी शेष नहीं छोड़ा था । ठीक हैछिद्र (योग्य अवसर अथवा दोष-मौन)के होनेपर व्यभिचारियों और चोरोंकी प्रभुता व्याप्त हो जाती है । अभिप्राय यह कि जिस प्रकार कुछ दोष पाकर व्यभिचारी जनोंका साहस बढ़ जाता है उसी प्रकार उस दोषको (अथवा भित्ति आदिमें छेदको भी) पाकर चोरोंका भी साहस बढ़ जाता है ॥४९॥ अन्तमें जब चोरने मेरी प्रिय पत्नीकी साड़ीको भी खींचना प्रारम्भ कर दिया तब वह बोली कि अरे दुष्ट ! तू क्या अब भी उपेक्षा कर रहा है ? हे मूर्ख ! इस चोरके द्वारा मेरे अधोवस्त्रके खींचे जानेपर भी-मुझे नंगा करनेपर भी-तू किस प्रकार जीवित रह रहा है ? इससे तो तेरा मर जाना ही अच्छा था । कारण यह कि कुलीन पुरुष तबतक ही जीवित रहते हैं जबतक कि उनके समक्ष उनकी स्त्रीका तिरस्कार नहीं किया जाता है-उसकी लज्जा नहीं लूटी जाती है ।।५०-५१॥ ४६) अ क इ जल्पतावयोः; अ ड विलोलिताः । ४७) अ को ऽपि। ४८) ब अनयोः, इ मन्दिरे । ४९) इ किंचनात्यक्तम । ५०) अ स्तेनेधःपरि बच for रे। ५१) अ भवाविधिः । . १९
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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