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अमितगतिविरचिता कुलीना भाक्तिका शान्ता धर्ममार्गविचक्षणा। एकैव विदुषा कार्या भार्या स्वस्य हितैषिणा ॥३९ कुलकीर्तिसुखभ्रंशं दुःसहां श्वभ्रवेदनाम् । अवष्टब्धो नरः स्त्रीभिर्लभते नात्र संशयः ॥४० वैरिव्याघ्रभुजङ्गभ्यो निर्भयाः सन्ति भूरिशः। नैको ऽपि दृश्यते लोके यो न त्रस्यति योषितः ॥४१ कुण्टहंसगतेस्तुल्या ये नराः सन्ति दुधियः। न तेषां पुरतस्तत्त्वं भाषणीयं मनीषिणा ॥४२ निगद्येति निजां वार्ता द्वितीये विरते सति । तृतीयो बालिशो विष्टया भाषितुं तां'प्रचक्रमे ॥४३ स्वकीयमधुना पौरा मूर्खत्वं कथयामि वः । सावधानं मनः कृत्वा युष्माभिरवधार्यताम् ॥४४ एकदा श्वाशुरं गत्वा मयानीता मनःप्रिया। अजल्पन्ती निशि प्रोक्ता शयनीयमुपेयुषी' ॥४५
३९) १. स्वहितवाञ्छका। ४०) १. क वशीकृतः। ४३) १. हर्षेण । २. स्वमूर्खताम् । ४५) १. उपविष्टा; क प्राप्ता।
विद्वान् मनुष्यको ऐसी एक ही स्त्री स्वीकार करना चाहिए जो कुलीन हो, अपने विषयमें अनुराग रखती हो, शान्त स्वभाववाली हो, धर्म-मार्गके अन्वेषणमें चतुर हो, तथा अपना हित चाहनेवाली हो ॥३९॥
स्त्रियोंके द्वारा आक्रान्त-उनके वशीभूत हुआ प्राणी अपने कुलकी कीर्ति व सुखको नष्ट करके दुःसह नरकके दुखको प्राप्त करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥४०॥
लोकमें शत्रु, व्याघ्र और सर्पसे भयभीत न होनेवाले बहुत-से मनुष्य हैं । परन्तु ऐसा वहाँ एक भी मनुष्य नहीं देखा जाता जो कि स्त्रीसे भयभीत न रहता हो ॥४१॥
जो दुर्बुद्धि मनुष्य हस्त (पंख ) हीन हंसके समान अवस्थावाले हैं उनके सामने बुद्धिमान् मनुष्यको भाषण नहीं करना चाहिए ॥४२॥
इस प्रकार अपने वृत्तान्तको कहकर जब वह दूसरा मूर्ख चुप हो गया तब तीसरे मूर्खने अपनी बुद्धिके अनुसार उस मूर्खताके सम्बन्धमें कहना प्रारम्भ किया ॥४३॥
वह कहता है कि हे पुरवासियो ! अब मैं आप लोगोंसे अपनी मूर्खताके विषयमें कहता हूँ। आप अपने मनको एकाग्र करके उसका निश्चय करें ॥४४॥
एक बार मैं अपने ससुरके घर जाकर मनको प्रिय लगनेवाली स्त्रीको ले आया। वह रातमें शय्यापर आकर कुछ बोलती नहीं थी। तब मने उससे कहा कि हे कृश उदरवाली
४१) ब योषिताम् । ४२) अ गतिस्तुल्या । ४३) अ दृष्ट्या, क दृष्ट्वा, इ निन्द्यां for दिष्ट्या ।