SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ अमितगतिविरचिता तदीयं वचनं श्रुत्वा विहस्य भणितं मया । हारितं हारितं कान्ते प्रथमं भाषितं त्वया ॥५२ गुडेन सर्पिषा' मिश्राः प्रतिज्ञाताः स्वयं त्वया । पङ्कजाक्षि दशापूपा दीयतां मम सांप्रतम् ॥५३ इदं पश्यत मूर्खत्वं मदीयं येन हारितम् । सर्वं पूर्वाजितं द्रव्यं दुरापं धर्मशर्मदम् ॥५४ तदा बोडमिति ख्यातं मम नाम जनैः कृतम् । विडम्बनां न कामेति प्राणी मिथ्याभिमानतः ॥ ५५ कर्तव्यावज्ञयो जीवो जीवितव्यं विमुञ्चति । नाभिमानं पुनर्जातु क्रियमाणो ऽपि खण्डशः ॥५६ समस्तद्रव्यविच्छेद सहनं नाद्भूतं सताम् । मिथ्याभिमानिना सर्वाः सह्यन्ते श्वभ्रवेदनाः ॥५७ बोडेन सदृशा मूर्खा ये भवन्ति नराधमाः । न तेषामधिकारो ऽस्ति सारासारविचारणे ॥५८ ५३) १. घृतेन । ५६) १. कृत्याकृत्यअज्ञानता । उसके इस वचनको सुनकर मैंने हँसकर कहा कि हे प्रिये ! तू हार गयी, हार गयी; क्योंकि, पहले तू ही बोली है ॥ ५२ ॥ हे कमल-जैसे नेत्रोंवाली ! तूने घी और गुड़से मिश्रित दस पूवोंके देनेकी जो स्वयं प्रतिज्ञा की थी उन्हें अब मेरे लिए दे || ५३ || वह तीसरा मूर्ख कहता है कि हे पुरवासियो ! मेरी इस मूर्खताको देखो कि जिसके कारण मैंने पूर्व में कमाये हुए उस सब ही धनको लूट लेने दिया जो दुर्लभ होकर धर्म और सुखको देनेवाला था ॥ ५४ ॥ उस समय लोगोंने भेरा नाम 'बोड' (मूर्ख) प्रसिद्ध कर दिया । ठीक है, प्राणी मिथ्या अभिमान के कारण कौन-से तिरस्कार या उपहासको नहीं प्राप्त होता है - सभी प्रकार के तिरस्कार और उपहासको वह प्राप्त होता है || ५५॥ प्राणी तिरस्कारके कारण प्राणोंका परित्याग कर देता है, परन्तु वह खण्ड-खण्ड किये जानेपर भी अभिमानको नहीं छोड़ता है ||५६ || मिथ्या अभिमानी मनुष्य यदि सब धनके विनाशको सह लेता है तो इससे सत्पुरुषोंको कोई आश्चर्य नहीं होता है । कारण कि वह तो उस मिथ्या अभिमानके वशीभूत होकर नरक दुखको भी शीघ्रता से सहता है ॥५७॥ मनोवेग कहता है कि विप्रो ! जो निकृष्ट मनुष्य बोडके सदृश मूर्ख होते हैं वे योग्यायोग्यका विचार करनेके अधिकारी नहीं होते हैं ||५८ || ५३) ब स्वयापूपाः । ५५) अ बोट, ब वोट्ट, क वोड, डवोद । ५६) व कर्तृणावज्ञया अ विमुंचते; । ५७) ड इ 'भिमानतः; अ इ. सद्यः for सर्वाः । ५८) अबोटेन, ब बोट्टेन, ड बोन |
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy