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________________ अमितगतिविरचिता शक्यते परिमां कतुं जलानां सरसीपतेः। दोषाणां न पुनर्नार्याः सर्वदोषमहाखनेः ॥५३ परच्छिद्रनिविष्टानां द्विजिह्वानां महाक्रुधाम् । भुजङ्गीनामिव स्त्रीणां कोपो जातु न शाम्यति ॥५४ परमां वृद्धिमायाता वेदनेव नितम्बिनी। सदोपचर्यमाणापि विधत्ते जीवितक्षयम् ॥५५ दोषाणां भ्रमतां लोके परस्परमपश्यताम् । वेधसा' विहिता गोष्ठी महेलां कुर्वता ध्रुवम् ॥५६ अनर्थानां निधिर्नारी वारीणामिव वाहिनी । वैसतिर्दुश्चरित्राणां विषाणामिव सपिणी ॥५७ ५३) १. परिमाणम् । ५४) १. क परदोष-परगृहप्रविष्टवतीनाम् । ५५) १. वृद्धि प्राप्ता बहुमान्या । २. क सेव्यमाना। ३. करोति । ५६) १. मया महिलां विहिता युष्माकं स्थानमिति गोष्ठि ( ? ) । २. कृता। ५७) १. क नदी । २. गृहम् । __ कदाचित् समुद्रके जलका परिमाण किया जा सकता है, किन्तु समस्त दोषोंकी विशाल खानिभूत स्त्रीके दोषोंका परिमाण नहीं किया जा सकता है ॥५३॥ जिस प्रकार उत्तम छेद (बाँबी) में स्थित रहनेवाली, दो जीभोंसे संयुक्त और अतिशय क्रोधी सर्पिणियोंका क्रोध कभी शान्त नहीं होता है उसी प्रकार दूसरेके छेद (दोष) के देखने में तत्पर रहनेवाली, चुगलखोर-दूसरोंकी निन्दक-और अतिशय क्रोधी स्त्रियोंका क्रोध भी कभी शान्त नहीं होता है ॥५४॥ जिस प्रकार अतिशय वृद्धिंगत वेदना (व्याधिजन्य पीड़ा) का निरन्तर उपचार ( इलाज ) करनेपर भी वह प्राणोंका अपहरण ही करती है उसी प्रकार अतिशय पुष्टिको प्राप्त हुई स्त्री निरन्तर उपचार (सेवा-शुश्रूषा.) के करनेपर भी पुरुषके प्राणोंका अपहरण ही करती है ॥५५॥ स्त्रीकी रचना करनेवाले ब्रह्मदेवने मानो उसे एक दूसरेको न देखकर इधर-उधर घूमनेवाले दोषोंकी सभा-उनका निवासस्थान ही कर दिया है ॥५६॥ जिस प्रकार नदी जलका भण्डार होती है उसी प्रकार स्त्री अनर्थोंका भण्डार है। तथा जिस प्रकार सर्पिणी विषोंका स्थान होती है उसी प्रकार स्त्री असदाचारोंका स्थान है ।।५।। ५३) ड परमा, अ ब क परिमा, इ परमां । ५४) क ड द्विजिह्वानामहो ध्रुवं; अ°मविस्त्रीणां । ५५) ड क्षणं for क्षयं । ५६) ब क इ महिलां।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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