SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ अमितगतिविरचिता विशालं कोमलं दत्तं तया तस्य वरासनम् । कुर्वत्या परमं स्नेहं स्वचित्तमिव निर्मलम् ॥२९ अमत्राणि विचित्राणि पुरस्तस्य निधाय सा । भव्यं विश्राणयामास तारुण्यमिव भोजनम् ॥३० वितीर्णं तस्य सुन्दर्या नाभवद्रुचये ऽशनम् । अभव्यस्येव सम्यक्त्वं जिनवाचा विशुद्धया ॥३१ ममानिष्टं करोत्येषा' सर्वमेवमबुध्यत । न पुनस्तत्तथानिष्टं यदेषा कुरुते ऽखिलम् ॥३२ विरक्तो जायते जीवो यत्र यो मोहवाहितः । प्रशस्तमपि तत्तस्मै रोचते न कथंचन ॥३३ पुष्टिदं विपुलस्नेहं कलत्रेमिव भोजनम् । सुवर्णराजितं भव्यं न तस्याभूत्प्रियंकरम् ॥३४ ३०) १. पात्राणि । ३२) १. क सुन्दरी । २ क कुरंगी । ३३) १. पुरुषाय । ३४) १. सुन्दरी । वहाँ अतिशय स्नेह करनेवाली उस सुन्दरीने उसे अपने निर्मल अन्तःकरण के समान विशाल एवं कोमल उत्तम आसन दिया ||२९|| पश्चात् उसने उसके सामने थाली आदि अनेक प्रकारके बर्तनोंको रखकर सुन्दर यौवन के समान उत्तम भोजन परोसा ॥ ३० ॥ सुन्दरीके द्वारा दिया गया भोजन उसको इस प्रकारसे रुचिकर नहीं हुआ जिस प्रकार कि विशुद्ध जिनागमके द्वारा दिया जानेवाला चारित्र अभव्य जीवके लिए रुचिकर नहीं होता है ||३१|| यह सुन्दरी मेरा सब अनिष्ट करती है । और जो सब यह कुरंगी करती है वह मेरे लिए वैसा अनिष्ट नहीं है ||३२|| मोहसे प्रेरित जो जीव जिसके विषयमें विरक्त होता है वह कितना ही भला क्यों न हो, उसे किसी प्रकार से भी नहीं रुचता है ||३३| उसे जिस प्रकार वह सुन्दरी स्त्री प्रिय नहीं थी उसी प्रकार उसके द्वारा दिया गया पौष्टिक, बहुत घी तेलसे संयुक्त और सुवर्णमय थाली आदि ( अथवा पीत आदि उत्तम वर्ण ) से सुशोभित वह उत्तम भोजन प्रिय नहीं लगा । वह भद्र सुन्दरी स्त्री वस्तुतः पुष्टिकारक, अतिशय प्रेम करनेवाली और उत्तम रूपसे शोभायमान थी ||३४|| २९) व परमस्नेहं । ३०) क ड इ विधाय; अ ब रसं for भव्यं । ३१) अ नाभवद्धृदये, क माभवदुचये; अ ब क चारित्रं for सम्यक्त्वं । ३२) अ व्यबुध्यते, इ विबुध्यते; अ क ड इ स्तन्ममानिष्टं । ३४) क ड विपुलं ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy