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________________ धर्मपरीक्षा-५ ७७ ईक्षमाणः पुरः क्षिप्रं भाजने भोज्यमुत्तमम् । व्यचिन्तयदसावेवं कामान्धतमसावृतः ॥३५ चन्द्रमतिरिवानन्ददायिनी सुपयोधरा। किं कुरङ्गो मम क्रुद्धा न दृष्टिमपि यच्छति ॥३६ नूनं मां वेश्यया साधं सुप्तं ज्ञात्वा चुकोप मे। तन्नास्ति भुवने मन्ये ज्ञायते यन्न वक्षया ॥३७ ऊ/कृतमुखो' ऽवादि परिवारजनैरयम् । किं तुभ्यं रोचते नात्र भुक्ष्व सर्व मनोरमम् ॥३८ स जगौ किमु जेमामि न किंचिन्मे मनीषितम् । कुरङ्गीगृहतो भोज्यं किञ्चिदानीयतां मम ॥३९ श्रुत्वेति सुन्दरी गत्वा कुरङ्गीभवनं जगौ' । कुरङ्गि देहि किचित्त्वं कान्तस्य रुचये ऽशनम् ॥४० ३६) १. न विलोकयति; क ददाति । ३७) १. अहम् । ३८) १. बहुध्यान [ धान्यः ] । २. जनः । ४०) १. अवादीत् । ___ कामसे अन्धा हुआ वह बहुधान्यक अज्ञानताके कारण सामने पात्र में परोसे हुए उत्तम भोजनको शीघ्रतासे देखता हआ इस प्रकार विचार करने लगा-चन्द्रके समान आह्वादित करनेवाली वह सुन्दर स्तनोंसे संयुक्त कुरंगी मेरे ऊपर क्यों क्रोधित हो गयी है जो मेरी ओर निगाह भी नहीं करती है। निश्चयसे इसने मुझे वेश्याके साथ सोया हुआ जानकर मेरे ऊपर क्रोध किया है। ठीक है-मैं समझता हूँ कि संसारमें वह कोई वस्तु नहीं है कि जिसे चतुर स्त्री नहीं जानती हो ॥३५-३७।। इस प्रकार ऊपर मुख करके स्थित-चिन्तामें निमग्न होकर आकाशकी ओर देखनेवाले-उससे परिवारके लोगोंने कहा कि क्या तुम्हें यहाँ भोजन अच्छा नहीं लगता है ? जीमो, सब कुछ मनोहर है ॥३८|| यह सुनकर वह बोला कि क्या जीम , जीमनेके योग्य कुछ भी नहीं है । तुम मेरे लिए कुछ भोजन कुरंगीके घरसे लाओ ॥३९॥ उसके इस कथनको सुनकर सुन्दरी कुरंगीके घर जाकर उससे बोली कि हे कुरंगी ! तुम पतिके लिए रुचिकर कुछ भोजन दो ॥४०॥ ३५) अ कामान्धस्त। ३७) इ जायते यन्न। ३८) अ रोचते चान्नं; अ इ मनोहरं । ३९) अब किंचिज्जेमनोचितं । ४०) ब देहि मे किंचित् कांतेति रुचये ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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