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________________ ७३ ... धर्मपरीक्षा-५... लीलया भवनद्वारे स्थितो ऽध्यास्य चतुष्किकाम् । स पश्यन्नुल्लसत्कान्ति प्रियावदनपङ्कजम् ॥१२ क्षणमेकमसौ स्थित्वा निजगाद मनःप्रियाम् । कुरङ्गि देहि मे क्षिप्रं भोजनं किं विलम्बसे ॥१३ सा कृत्वा भृकुटों भीमा यमस्येव धनुलंताम् । अवादीत्कुटिलस्वान्ता कान्तं' पुरुषनाशिनी ॥१४ स्वमातुर्भवने तस्या भुक्ष्व दुष्टमते वज। यस्या निवेदिता वार्ता पूर्वी पालयता स्थितिम् ॥१५ सुन्दर्याः स्वयमाख्याय वाता भत्रै चुकोप सा। . योजयन्ति न कं दोषं जिते भर्तरि योषितः ॥१६ कृत्वा दोषं स्वयं दुष्टा पत्ये कुप्यति कामिनी।। पूर्वमेव स्वभावेन स्वदोषविनिवृत्तये ॥१७ १२) १. आश्रितस्य। १३) १. मह्यम्। १४) १. भर्तारं प्रति। वह बहुधान्यक क्रीडापूर्वक जाकर कुरंगीके भवनके द्वारपर स्थित हो गया। फिर वह चौके ( रसोईघर ) में जाकर कान्तिमान् प्रियाके मुखरूप कमलको देखता हुआ क्षणभरके लिए वहाँ स्थित हो गया और मनको प्रिय लगनेवाली पत्नीसे बोला कि हे कुरंगी ! मुझे जल्दी भोजन दे, देर क्यों करती है ? ॥१२-१३॥ ___इस पर मनमें कुटिल अभिप्रायको रखनेवाली वह पुरुषोंकी घातक कुरंगी यमराजकी धनुर्लता (धनुषरूप बेल ) के समान भृकुटीको भयानक करके पतिसे बोली कि हे दुर्बुद्धि ! अपनी उस माँके घरपर जा करके भोजन कर जिसके पास स्थितिका पालन करनेवाले तूने पहले आनेका समाचार भेजा है ॥१४-१५॥ . इस प्रकार वह सुन्दरीसे स्वयं ही उसके आने की बात कह करके पतिके ऊपर क्रोधित हुई। ठीक है-पतिके अपने अधीन हो जानेपर स्त्रियाँ कौन-कौनसे दोषका आयोजन नहीं करती हैं ? अर्थात् वे पति को वशमें करके उसके ऊपर अनेक दोषोंका आरोपण किया करती हैं ॥१६॥ दुष्ट कामुकी स्त्री स्वयं ही अपराध करके अपने दोषको दूर करनेके लिए स्वभावसे पहले ही पतिके ऊपर क्रोध किया करती है ॥१७॥ १२) इ कान्ति । १४) अ धनुग्र्गतां; ब न्यवादीत्; क परुषभाषिणी । १५) व भुवने ; ड सर्वां for पूर्वां; अ पालयिता। १७) अ पत्यै । १०
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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