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अमितगतिविरचिता न जानाति नरो रक्तो धर्म कृत्यं सुखं गुणम् । वस्तु हेयमुपादेयं यशोद्रव्यगृहक्षयम् ॥६ स्वीकरोति पराधीनमात्माधीनं विमञ्चति । पातके रमते रागी धर्मकार्य विमुञ्चति ॥७ रागाक्रान्तो नरः क्षिप्रं लभते विपदं पराम । सामिषे कि गले लग्नो मीनो याति न पञ्चताम ॥८ दुनिवारैः शरैरक्त निशुम्भति मनोभवः । युक्तायुक्तमजानन्तं कुरैङ्गमिव लुब्धकः॥९ सज्जनः शोच्यते रक्तो दुर्जनैरुपहस्यते । सदाभिभूयते लोकः कां वा प्राप्नोति नापदम् ॥१० मत्वेति दूषणं रागः शश्वद्धयः पटीयसा।
पृदाकुस्त्यज्यते कि न जानानेन विषालयः ॥११ ८) १. मांसे। ९) १. पुरुषम् । २. विध्यति-हन्ति; क पीडति । ३. क मृगम् । ४. क भिल्लः । १०) १. क निन्द्यते । २. पीड्यते। ११) १. क त्याज्यः । २. सर्पः।
रक्त (रागान्ध ) मनुष्य धर्म, अनुष्ठेय कार्य, सुख, गुण, हेय व उपादेय वस्तु, यश तथा धन और घरके विनाशको भी नहीं जानता है ।।६।।
रागी मनुष्य पराधीन सुखको तो स्वीकार करता है और आत्माधीन ( स्वाधीन) निराकुल सुखको छोड़ता है । वह धर्मकार्यसे विमुख होकर पापकार्यों में आनन्द मानता है ॥७॥
रागके आधीन हुआ मनुष्य शीघ्र ही महाविपत्तिको प्राप्त करता है। ठीक है-मछली मांससे लिप्त काँटेमें अपने गलेको फंसाकर क्या मृत्युको प्राप्त नहीं होती है ? होती ही है ।।८॥
जिस प्रकार व्याध तीक्ष्ण बाणोंके द्वारा हिरणको विद्ध करता है उसी प्रकार कामदेव योग्य-अयोग्यके परिज्ञानसे रहित रक्त पुरुषको अपने दुर्निवार बाणोंके द्वारा विद्ध करता होविषयासक्त करता है ।।९।। _ रक्त पुरुषके विषयमें सज्जन खेदका अनुभव करते हैं-उसे कुमार्गपर जाता हुआ देखकर उन्हें पश्चात्ताप होता है, किन्तु दुर्जन मनुष्य उसकी हँसी किया करते हैं। उसका सब लोग तिरस्कार करते हैं। तथा ऐसी कौन-सी आपत्ति है जिसे वह न प्राप्त करता हैउसे अनेकों प्रकारकी आपत्तियाँ सहनी पड़ती हैं ॥१०॥
यह जानकर बुद्धिमान मनुष्यको निरन्तर उस रागरूप दूषणका परित्याग करना चाहिए। ठीक है-जो सर्पको विषका स्थान (विषैला) जानता है वह विवेकी मनुष्य क्या उस सर्पका परित्याग नहीं करता है ॥११॥
६).अ ब जनो रक्तो; ब धर्मकृत्यं; गुणं सुखं । ७) ब पातक....धर्म । ९) अ ब °मजानानं । १०) क रपहास्यते, ड इ उपहास्यते; ड सदा विभू। ११) अ वृंदाकुः ।