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प्रतिद्वन्द्विता, प्रतिस्पर्धा या हार-जीत के रूप में न होकर स्वस्थ विचार-विमर्श, चिंतन-मंथन और समीक्षा गोष्टी के रूप में होनी चाहिए। मूर्तिपूजक आचार्य अपने तर्क प्रस्तुत कर और अमूर्तिपूजक आचार्य अपने तर्क प्रस्तुत करे। उसमें वह देखा जाए कि किसके तर्क में ज्यादा प्राबल्य है। अगर लगे कि सामने वाले का तर्क अकाट्य है, वहाँ प्रतिपक्ष इतना-सा कह दे कि हमारी परम्परा या मान्यता तो ऐसी नहीं है, पर आपके तर्क को काटना हमारे लिए संभव नहीं हो पा रहा है। बस, इतना-सा कह देना एक सीमा तक सत्य -साधना की अच्छी उपलब्धि है। परम्परा को छोड़ना संभव हो, न हा, इतना कहने का साहस बड़ी बात है। मेरे विचार है कि इस तरह की स्वस्थ चर्चा हो तो ज्ञान की वृद्धि हो सकेगी, विषय की स्पष्टता भी हो सकेगी और इस प्रकार के चिंतन-मंथन से सार रूप में कोई नवनीत भी निकल सकता है। यथार्थ बात किसी की भी हो, उसका असम्मान नहीं होना चाहिए।
जिसमें चेतना नहीं है, वह पदार्थ है, पुदगल है। उसकी धूप-दीप, फल-फूल आदि से पूजा की जाए, इसका क्या औचित्य ? संभवतः पाली की बात है। मेरे पास एक अमूर्तिपूजक मुनि आए। उनके साथ बातचीत का क्रम चला तो मैंने कहा-'धूप-दीप, फल-फूल आदि के द्वारा पूजा करना क्या सचित्त प्राणियों की हिंसा नहीं है?' जहाँ तक मेरी जानकारी है, जैन परम्परा के मूर्तिपूजक साधु पूजा में धूप-दीप, फल-फूल आदि का उपयोग नहीं करते है। मैंने उनसे कहा - 'आपका विश्वास मूर्तिपूजा में है, पर कम से कम हिंसा को रोकने के प्रयास तो किया जाना चाहिए। अपनी मान्यतानुसार पूजा-भक्ति करें, वह आपकी इच्छा, पर हिंसा से तो बचना चाहिए। यह हमारा एक चिंतन है कि भक्ति-पूजा में निरीह प्राणियों की हिंसा नहीं होनी चाहिए। जो पूजा, जो भक्ति बिना हिंसा के हो सकती है, उस भक्ति-पूजा के लिए निरीह प्राणियों की हिंसा क्यों होनी चाहिए?
एक पदार्थ या पुद्गल में सचेतन प्राणी जितना क्या सामर्थ्य