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जगह व्याप्त है लेकिन अमूर्त रूप में । ताप के लिए अग्नि का प्रकट होना अर्थात् मूर्त रूप में प्रकट होना आवश्यक है। अमूर्त रूप में अग्नि से ताप नहीं मिल सकता । अग्नि पत्थर में है, लकड़ी में है, घास में है, माचिस की तीली में है, लेकिन पत्थर, लकड़ी, घास या दियासलाई ताप प्रदान नहीं कर सकती, कारण वहाँ अग्नि अमूर्त है । जहाँ पत्थर, लकड़ी, घास या दियासलाई रगड़ खाते है अग्नि प्रकट होती है व ताप प्रदान करती है । इसलिए मूर्त रूप का ही महत्व है ।
एकलव्य को गुरु द्रोणाचार्य ने भील होने के कारण धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर दिया तो बालक एकलव्य ने गुरू द्रोणाचार्य की मूर्ति बना गुरु की स्थापना कर धनुर्विद्या सीखी। जीवित गुरु की मिट्टी की मूर्ति के माध्यम से भील बालक एकलव्य अद्भुत असाधारण शब्दवेधी विद्या में इतना पारंगत हो गया कि अर्जुन भी आश्चर्यचकित रह गया, परमात्मा की मूर्ति से भक्त कुछ न पा सके, यह कैसे संभव है ?
प्रतीकोपासना के बिना व्यक्ति की वैसी ही स्थिति है जैसे तीरंदाज हवा में तीर चलाता है। तीरंदाज जब तक किसी प्रतीक को अपना लक्ष्य नहीं बनायेगा तब तक उसका तीर चलाना व्यर्थ है । पृथ्वीराज नेत्रहीन होकर भी आवाज के माध्यम से लक्ष्य पर तीर चलाकर अपनी सोच को पूर्ण कर सका । यहाँ साधक ने अपने साध्य तक पहुँचने के लिए कान का सहारा ले आवाज को साधन बनाया उसी तरह उपासक को साध्य को प्राप्त करने के लिए साधन को माध्यम बनाना पड़ता है । यह बात और है कि उपासक साध्य को प्राप्त करते समय साधन को छोड़ देता है । इसका अर्थ यह नहीं कि बिना साधन के वह साध्य तक पहुँच पाया ।
उदाहरणार्थ 'मुझे दिल्ली से श्री सम्मेत शिखर तीर्थ जाना है' यहाँ साधक मैं हूँ, साध्य सम्मेत शिखर तीर्थ, पहुँचने के लिए रेल या बस साधन है। रेल मार्ग तय करने के उपरान्त मुझे श्री सम्मेत शिखर
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