________________
है। इसके सम्मान को वे अपना सम्मान तथा अपमान को अपना अपमान समझते है। ध्वज की मर्यादा की रक्षा के लिए आत्माहुति देने के लिए भी उद्यत रहते है। भक्तजनों का भी प्रतिमा के साथ ऐसा ही लगाव है।
कुछ लोग ऐसा भी बोल पड़ते है कि परमात्मा तो सर्वव्यापक, निर्गुण और निराकार है। फिर प्रतिमा में निबद्ध कैसे होगा ? अच्छी बात है। लेकिन क्या लोग परमात्मा को सर्वत्र देखकर तदनुकूल आचरण करते है? जो दृश्य के प्रति श्रद्धावनत नहीं हो सकता, वह अदृश्य से प्रेम कैसे कर पायेगा ? वास्तविक रहस्य तो उनके अहंकार में छिपा है। अहंकार से अभिभूत होकर वे प्रतिमा को नमस्कार नहीं करते। भगवान ही उनका कल्याण करें।
श्री जिनेश्वर देव की साधना जिस प्रकार उनके नाम स्मरण से होती है, उनके गुण स्मरण से होती है, उनके पूर्वापर के चरित्रों के श्रवण से होती है, उनकी भक्ति से होती है, उनकी आज्ञाओं के पालन से होती है। उसी प्रकार उनके आकार, मूर्ति या प्रतिबिम्ब की भक्ति से भी होती ही है - "यह सत्य जब तक स्वीकार न किया जाय तब तक श्री जिनेश्वर टंव की कृत उपासना भी अपूर्ण ही रहती है।
नाम की भक्ति को स्वीकार करने के बाद आकार की भक्ति की उपेक्षा करना तो और भी भयानक भूल है। उपास्य का नाम केवल उसके गुणों को लक्ष्य कर नहीं होता परन्तु उसके देहाकार को लक्ष्य कर होता है। यदि उपास्य का नाम केवल उसके गुणों को लक्ष्य कर होता तो प्रत्येक उपास्य को भिन्न-भिन्न नाम देने की आवश्यकता ही नहीं रहती। विभिन्न उपास्यों के समान गुण होते हुए भी उनके देहाकार आदि समान नहीं होते इसीलिए ही प्रत्येक का नाम अलग अलग दिया हुआ रहता है। देहाकार के नाम की भक्ति का फल माने हुए साक्षात देहाकार की भक्ति को निष्फल मानना बुद्धि की जड़ता के सिवाय और कुछ नहीं है। नाम आदि कल्याणकारी है तो यह नाम