________________
भी बालक का चित्र देख वात्सल्य भाव मन में आते हैं जबकि रावण, कंस या शत्रुओं के चित्र देख मन में घृणा भाव या प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होती है। जब भिन्न-भिन्न चित्रों को देखकर मन के भावों में तत्क्षण परिवर्तन आते हैं तो अपने आराध्य प्रभु की मूर्ति के दर्शन मात्र से ही अंतःस्थल में वीतरागता के भाव जाग्रत होंगे, इसमें किंचित मात्र संदेह नहीं।
परमात्मा की प्रतिमा के समक्ष जाते ही मन में श्रद्धा उमड़ पड़ती है, विनम्रता आ जाती है। मन में समर्पण के भाव हिलोरे लेने लगते हैं। गंभीर चिंतक श्री रजनीश के शब्दों में , मन्दिर में जब मूर्ति के चरणों में अपना सर रखते है तो सवाल यह नहीं है कि वे चरण परमात्मा के है या नहीं, सवाल इतना ही है कि वह जो चरण के समक्ष झुकने वाला सिर है, वह परमात्मा के सामने झुक रहा है या नहीं। वे चरण तो निमित्त मात्र है। उन चरणों को कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो आप को झुकने की कोई जगह बनाने की व्यवस्था की है।
पूज्य स्वामी शिवानंद सरस्वती के कथनानुसार मनोविज्ञान भी इस तथ्य से सहमत है कि प्रतीकोपासना द्वारा मन की एकाग्रता अनायास मिलती है। प्रारम्भिक साधकों के लिए प्रतीकोपासना या मूर्तिपूजा का बहुत बड़ा महत्व है। मन को एक बारगी ब्रह्म में टिकाना बहुत मुश्किल है। साधना के क्षेत्र में उतरने के लिए पहले-पहले एक आलम्बन की आवश्यकता होती है। यह बाहरी पूजा है। इसके सहारे भगवान के रूपैश्वर्य का स्मरण किया जाता है। इस स्मरण से साधक की मनोवृत्ति धीरे-धीरे अंतर्मुखी होती जाती है और वह ईश्वर के सच्चिदानन्दमय स्वरूप को पहचानने के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व को भी पहचानने लगता है। कालांतर में यह पहचान बुद्धि ईश्वरत्व को ही स्मरण नहीं करती, अपितु स्वयं को उनसे अभिन्न साबित करती है। इस प्रकार मूर्तिपूजा की साधना उत्तम और उत्कृष्ट है। सैनिक के लिए ध्वज सब कुछ है। ध्वज से उन्हें प्रेरणा मिलती
220