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________________ सूक्तमुक्तावली धन विण पग सूझी तेह दीठो मरंतो ॥१३॥ वारिपूर्णं सर इव धनवान् पुमानेव शोभते, नो निर्धन इति विदन् महाकविर्माघोऽपि निर्धनतया चरणरुजा” मृतिङ्गतोऽतोऽत्र लोके धनमपि महत्त्वप्रदायकं सर्वत्र यशःकीर्तिमहिमादरादिगुणप्रख्यातिकरञ्च समस्तविपत्तिरक्षणेऽप्यतिशक्तिमबोद्धव्यमिति सज्जनैः ||१३|| अथ ६-राजसेवा-विषयेसुजन सुहित कीजे दुर्जना सीख दीजे, जग जन यश कीजे चित्त वांछा वरीजे । निज गुण प्रगटीजे विधना कार्य, कीजे प्रभु सम विचरीजे जो प्रभू सेव कीजे ॥१४॥ ___हे भ्रातरः ! यदि यूयं लोकमान्यतामिच्छथ, तर्हि सज्जनजनाग्रे विनयं कुरुत, दुर्जनसङ्गतिं त्यजत, गुरुजनशिक्षा मनसि धरत । तथा सदाचारेण विधं वशयत, लोकानुपकुरुत, स्वार्थमुज्झत, राजसेवया गुणानुद्घाटयत । निजस्वामिन इव निगदितैर्गुणैर्लोके पूज्या यदिवा निखिलकार्यकरणे शक्तिमन्तो भवेयुः ||१४|| किञ्चभगति करि बडानी सेव कीजे जिकाई, अधिक फल न आपे कर्मथी ते तिकांई। जलधि तरिय लंका सीत संदेश लाये, हनुमत करमे ते राम कच्छोट पाये ॥१५॥ ____ गुरून भक्त्या भजत, लोको हि सर्वत्र प्रारब्धानुसार्येव फलमाप्रोति । यथा सागरमुत्तीर्य लकातः सीताशुद्धिमानीय रामचन्द्राय 221
SR No.006195
Book TitleSukta Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri and Others
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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