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जैन साहित्यमां कथा साहित्य पण समुद्रनी जेम अगाध-अफाट छे. जैनोनी बे धारा श्वेताम्बर अने दिगम्बर. बन्ने धाराना आचार्योओ अढलक कथासाहित्य रच्यु छे, संस्कृतमां, प्राकृत-अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनीमां, अपभ्रंश भाषामां, अनर्गल साहित्य रचायुं छे. तो प्रत्यक्ष रीते कथा साहित्य न गणाय तेवो इतर विषयोना शास्त्र ग्रंथोमां मलतुं कथासाहित्य पण अपार छे, स्वाभाविक छे के जुदा-जुदा समयगाळामां रचायेल अने वळी जुदी-जुदी कथा-परंपराने अनुसरता आ साहित्यमां प्रासंगिक फेरफारो थता ज रहे. पात्रोनी वध-घट थाय, पात्रोना नामोमां फेरबदली के उलट-पालट थाय, प्रसंगोना परिवेष बदलतां रहे, संवादोमां शाब्दिक परिवर्तनो आवे, क्यारेक आखा प्रसंगो जे रीते प्रचलित होय ते करतां अलग रीते ज आलेखाय. आq बधुं आ कथा साहित्यमां थतु ज रहे छे, बल्के आम थर्बु ओ सहज गणाय तेम छे. अभ्यासी अध्येता माटे आ एक घणो रसप्रद विषय बने, कथानकनो विकास, कथाघटकोना स्वरूपो तथा परिवर्तनो, कथा प्रसंगोना आलेखनना समयनी सांस्कृतिकसामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिस्थिति, आ बधार्नु अध्ययन घणु रसदायक
बने.
प्रस्तावना
त्रिषष्टिशलाकापुरुष संपादक : विजय शीलचन्द्र सूरिजी
जैन रामायण में सुकोशल मुनि की कथा और मण्ह जिणाण आणं के विवेचन ग्रंथ में भावधर्म की व्याख्या के अन्तर्गत सुकोशल मुनि की कथा में महदंतर है । इस सुक्तमुक्तावली में श्री केशरविमलगणि की परंपरा में कथाएँ जिस प्रकार श्रवण में आयी उसी प्रकार कथाओं