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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन मुनिमनोरञ्जनाशीति (मुनिमनोरञ्जन-शतक)
यह एक मुक्तक काव्य है जिसमें अस्सी पद्य हैं । इसमें दिगम्बर मुनि एवं आर्यिका की चर्या एवं विशेषताओं का विशद वर्णन है । कवि ने मुनि एवं उसके पर्यायवाची साधु, यति, वर्णी, योगी एवं तपस्वी शब्दों की निरुक्ति इस प्रकार बतलायी है -
भूयान्मौनिमनो भवोक्तिविभवादस्मान्मुनिः स्यात्तदास्मानं सम्पति साधयेत्स्वयमितः साधुः समर्थः सदा । दुर्भावं प्रयतेत रोद्धमिति यो रौद्रं तथार्तं यतिः,
नाग्न्येनैव न शेमुषीश पुनरप्येषाऽस्ति मे सम्मतिः ॥ ७६॥ सांसारिक वैभव से हटकर जब मनुष्य का मन मौन होता है तब वह 'मुनि" कहलाता है । आत्मा की साधना करने के कारण "माधु" कहा जाता है । आर्त और रौद्र भावों को रोकने का यत्न करता है इसलिए “यति".संज्ञा पाता है । अतः हो शेमुषीश!केवल नग्न रहने से कोई मुनि नहीं होता यह मेरी सम्मति है । तथा
वर्णी वर्णपते किलाक्षविषयान्स्वप्नोपमा नित्यतः, योगं यः परमात्मनाऽभिलभते योगीत्यसौ संमतः । सम्यक्त्वेन निरीहतार्चिषि तपत्येवं तपस्वी भवे
न्मुण्डस्यैव न मुण्डनेन भगवनस्मिन्धरा संस्तवे ।। ७७॥ - जो इन्द्रिय-विषयों का स्वप्न के समान वर्णन करते हैं वे "वर्णी' हैं । परमात्मा के साथ योग सम्बन्ध की अभिलाषा रखनेवाले 'योगी" होते हैं । सम्यग्दर्शन के साथ निःस्पृहतारूपी अग्नि में तप करने पर 'तपस्वी' कहलाते हैं । हे भगवान्! इस धरा पर मात्र सिर के मुण्डन से कोई साधु नहीं बन सकता ।
कवि के अनुसार मुनि का प्रमुख कर्तव्य है ज्ञान और ध्यान में निरन्तर रत रहना। इसके द्वारा ही चित्त की चंचलता रोकी जा सकती है -
साम्यं काम्यमपास्य यातु न बहिश्चित्तं निसर्गाचलं, स्थाणौ ध्यानपदाभिधेयप्रभवतात् सम्बध्य यावदलम् । नो चेत्तत्परिवेष्टयेदपि पुनः स्वाध्यायनाम्नाऽमुना,
स्वाध्यायेन यतो न विप्लवमियात्साधोऽत्र तत्तेऽधुना ।। ६३॥ कवि ने अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में साम्यभाव धारण करना मुनि का अनिवार्य लक्षण बतलाया है -