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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन के अनुकूल नगरवर्णन, नायिका वर्णन, निसर्ग वर्णन, राज्यवर्णन आदि सहजरूप से इस काव्य में यथास्थान प्रसंगानुसार गूंथे गये हैं । इसमें जैन आचार और दर्शन के सिद्धान्त कान्तासमि शैली में पिरोये गये हैं । प्रस्तुत काव्य में शान्तरस की प्रधानता है । शृंगार, करुण आदि अन्य रस इसके सहायक हैं।
साहित्य जव संगीत से सम्पृक्त होता है तब उसकी रमणीयता द्विगुणित हो जाती है । इस कृति में विभिन्न राग-रागनियों में निबद्ध पद्य भी हैं, जैसे - प्रभाती, रसिकनामराग, काफीहोलिकाराग, श्यामकल्याणराग, सारंगराग, सौराष्ट्रीयराग, कब्बाली आदि । ऐसी विशेषतायें अन्य काव्यों में प्रायः दुर्लभ होती हैं । भद्रोदय
इसका अपरनाम "समुद्रदत्तचरित" है । यह ऐसा काव्य है जिसमें महाकाव्य और चरितकाव्य दोनों की विशेषतायें साथ-साथ दृष्टिगोचर होती हैं । नौ सर्गों वाले इस काव्य में सत्य धर्म के पालन से भद्रदत्त के उदय अर्थात् उसके आत्मा से परमात्मा बन जाने का वर्णन है तथा इसके अध्ययन से आत्मपरिणाम भी भद्र होते हैं, अतः इसका “भद्रोदय" नाम सार्थक है।
प्रस्तुत काव्य के प्रथम चार सर्गों में महाकवि ने भद्रदत्त के वर्तमान जन्म तथा अन्तिम पाँच सर्गों में भावी जन्मों का वर्णन कर आत्मा से परमात्मा बनने की विधि का निरूपण किया है | कथानक इस प्रकार है -
भारतवर्ष में श्रीपद्मखण्ड नामक नगर है । वहाँ सुदत्त नामक वैश्य एवं उसकी सुमित्रा नामक पत्नी को पुत्ररल की प्राप्ति होती है, जिसका नाम वे भद्रमित्र रखते हैं । वह अपने नाम के अनुरूप ही सरल परिणामी, रूपवान् एवं गुणवान् था । वह मित्रों की सलाह से उनके साथ धनार्जन हेतु रलद्वीप जाता है । वहाँ वह सात रत्न क्रयकर सिंहपुर पहुँचता
उस समय सिंहपुर का शासक सिंहसेन था । उसकी रानी का नाम रामदत्ता था । राजा के मन्त्री का नाम श्रीभूति था । उसने अपने गले में डले हुए यज्ञोपवीत में एक चाकू इसलिए बाँध रखा था कि यदि वह कभी भूल से झूठ बोल गया तो उसी चाकू से अपना प्राणान्त कर लेगा । इस कार्य के कारण वह "सत्यघोष' नाम से प्रसिद्ध हो जाता है ।