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vii डॉ. आराधना जैन ने इस श्रेष्ठ कृति को अपने शोध का विषय बनाकर अत्यन्त महनीय कार्य किया है । उन्होंने इस पर भूरि-भूरि परिश्रम किया है । काव्य में प्रयुक्त अर्थान्तर न्यास, लोकोक्तियों ॐ " सूक्तियों के रूप में सुग्राह्य हैं और संस्कृत के विशाल लोकोक्ति और सूक्ति संग्रह को समृद्ध करने में सक्षम हैं।
- जहाँ काव्य के अन्य पक्षों पर गहनता से विचार किया गया है वहाँ उस की भाषा पर और अधिक सूक्ष्मता से विवेचन अपेक्षित है । 'न याचितं मानि उपैति जातु' (१/७२) में मानि में हस्व इकार का प्रयोग चिन्त्य है । 'निलिम्पितम्' (१/१०४) में 'शे मुचादीनाम्' (७/१/५९) से श परे रहने पर नुम् विधान के कारण नुम् प्रयोग विचारणीय है । इसी प्रकार 'कुलकरैः' (२/८) में 'अरुर्विषदन्तस्य मुम्' (६/६/६७) से खिदन्त के परे रहने पर ही मुम् विधान होने के कारण मुम्प्रयोग समीचीन नहीं लगता | काव्य में इस प्रकार के अनेक स्थल है जहाँ वैयाकरणों को सन्देह हो सकता है। हो सकता है यह उनकी अल्पज्ञता के कारण ही हो, पर उनका सन्देह निवारण अपेक्षित है । आशा है डॉ. आराधना जैन अपने शोध ग्रन्थ के आगामी संस्करण में काव्य के इस पक्ष पर भी विचार करेंगी।
फिर भी जितना कार्य उन्होंने किया है, वह श्लाघनीय है । कयानक के स्रोतों का पता लगाकर उससे समीक्ष्य काव्य के कयानक की तुलना, काव्य में प्रयुक्त मुहावरों, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का अध्ययन, काव्य में उपात्त बिम्बों की समीक्षा, एवञ्च भाषा वक्रता जिसे अलङ्कार शास्त्रियों ने भनीभणिति कहा है, का नाना परिप्रेक्यों में विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता है, जिसके लिये उसकी विदुषी लेखिका साधुवाद की पात्र है।
दीपावली पर्व १३/११/१९९३
डॉ. सत्यव्रत शास्त्री आचार्य, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली पूर्व कुलपति, श्री जगनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी (उड़ीसा)