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द्वादश अध्याय
उपसंहार जयोदय के प्रणेता महाकवि, बालब्रह्मचारी भूरामलजी जैन, जो आगे चलकर दिगम्बर जैन आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए, यथार्थतः ज्ञान के अगाध सागर थे । वे धर्म, दर्शन, व्याकरण और न्याय के वेता एवं मूलाचार की साकार प्रतिमा थे। निष्परिग्रहिता, निर्ममत्व, निरभिमानिता उनके भूषण थे । कवित्व उनका स्वाभाविक गुण था।
महाकवि ने जयोदय, वीरोदय आदि महाकाव्यों एवं दयोदय जैसे चम्पूकाव्य की रचनाकर संस्कृत साहित्य की समृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है । उनके द्वारा हिन्दी साहित्य की भी श्रीवृद्धि हुई है।
. जयोदय की कथा का स्रोत आचार्य जिनसेन एवं आचार्य गुणभद्ररचित आदिपुराण है । इसी को आधार बनाकर महाकवि ने जयोदय महाकाव्य का सृजन किया है । इसकी संस्कृत टीका भी कवि ने स्वयं लिखी है । प्रस्तुत महाकाव्य में २८ सर्ग एवं ३१०१ श्लोक
हैं।
धर्मसंगत अर्थ और काम का आवश्यकतानुसार उपार्जन और भोग करने के उपरान्त जीवन को मोक्ष की साधना में लगाना मानव-जीवन का प्रयोजन है, यह सन्देश जयोदय महाकाव्य की रचना का लक्ष्य है।
राजा जयकुमार स्वयंवर सभा में राजकुमारी सुलोचना के द्वारा वरण किये जाते हैं। दोनों का विवाह होता है । जीवन को धर्म से अनुशासित रखते हुए भौतिक सुखों का संयमपूर्वक भोग करते हैं, लौकिक कर्तव्य को बड़ी वीरता और कुशलता से निवाहते हैं
और अन्त में आत्म-कल्याण हेतु मोक्ष-मार्ग ग्रहण कर लेते हैं । इस कथावस्तु से काव्यरचना का उक्त उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है।
__जीवन में जो स्पृहणीय और अस्पृहणीय है, करणीय और अकरणीय है, हेय और उपादेय है; उसका प्रभावशाली सम्प्रेषण मानवीय चरित्र-चित्रण के माध्यम से ही सम्भव है। मानव-चरित्र का चित्रण ही रसानुभूति का स्रोत बनता है । अतः कवि का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है काव्य में स्पृहणीय और अस्पृहणीय चरित्रवाले पात्रों को निवद्ध करना तथा उनकी चारित्रिक प्रवृत्तियों का प्रभावशाली ढंग से चित्रण करना । जयोदय के महाकवि ने इस कार्य में अद्भुत सफलता प्राप्त की है।