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________________ २१२ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन गुरुपनों का आदर मनुष्य महापुरुषों के प्रति नियमतः भक्तिमान् बने । महापुरुषों के अनुग्रह का बिन्दु भी हो तो यहाँ उससे बढ़कर भव्यता क्या है ? कारण, इन महापुरुषों द्वारा आदृत पाषाण भी इस भूतल पर पूजा जाता है ।' सांसारिक विषयों के सेवन से सर्वथा दूर रहने वाले और मोक्षमार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ने वाले, जिनका मन काम-वासना से दूर रहता है, उन गुरुदेव का मंगलमय दर्शन सदा करते रहना चाहिए। जो लोग ज्ञान, चारित्र, आयु और कुल परम्परा में बड़े हों, उन लोगों का भी लौकिक मार्ग में हित चाहने वाला पुरुष यथायोग्य रीति से आदर करता रहे ।' मनुष्य को चाहिए कि जिस राजा के राज्य में निवास करता है, उसको प्रसन्न बनाये रखने की चेष्टा करे । उसके विरुद्ध कोई काम न करे, क्योंकि उसके विरुद्ध चलना शल्य के समान हर समय दुःख देता रहता है । समुद्र में रहकर मगरमच्छ से विरोध करना हितावह नहीं होता। इन उपर्युक्त पारलौकिक और लौकिक गुरुओं के अतिरिक्त जो विषय-वासना के फन्दे में फंसे हुए हैं, विविध आरम्भ-परिग्रहों में आसक्त हैं तथा व्यर्थ ही स्वयं को गुरु कहलवाना चाहते हैं, अपने तथा औरों के भी सुख को नष्ट करने वाले हैं; उन गुरुओं का आदर नहीं करना चाहिए।' विनय और सदाचार भूतल पर अपने कार्य को कुशलतापूर्वक करने के इच्छुक मनुष्य को चाहिए कि यथायोग्य रीति से दान, सम्मान और विनय द्वारा न केवल समानधर्मी लोगों को सन्तुष्ट रखे, बल्कि विधर्मी लोगों को भी अपने अनुकूल बनाये रहे और इस तरह अपने गृहस्थ धर्म के द्वारा विजय प्राप्त करे । धर्म का मूल विनय ही है। अपने अन्तरंग को शुद्ध रखने के लिये आस्तिक्य (नरक, स्वर्गादि हैं, ऐसी श्रद्धा) भक्ति (गुणों में अनुराग), धृति, सावधानता, त्यागिता (दानशील होना), अनुभविता (प्रत्येक बात का विचार करना), कृतज्ञता, और नैष्प्रतीच्छ्य (किसी का भी भला करके उसका बदला नहीं चाहना), आदि गुणों को प्राप्त करना चाहिए । यद्यपि भावना की पवित्रता सदा कल्याण के लिए ही कही गई है फिर भी भोगाधीन मन वाले गृहस्थ को चाहिए कि वह कम से कम सदाचार का अवश्य ध्यान रखे अर्थात् भले पुरुषों को अच्छी लगनेवाली चेष्टा, आचरण किया करे । क्योंकि देशना करने वाले भगवान् सर्वज्ञ ने सदाचार को ही प्रथम धर्म बतलाया है। १. जयोदय, २/६७ ५. जयोदय, २/७१ २. वही, २/६८ ६. वही, २/७२ ३. वही, २/६९ ७. वही, २/७४ ४. वही, २/७०. ८. वही, २/७५
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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