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________________ एकादश अध्याय जीवन-दर्शन और जीवन-पद्धति महाकाव्य के माध्यम से सम्यक् जीवनदर्शन और आदर्श जीवनपद्धति पर प्रकाश डालना कवि का मुख्य ध्येय रहा है । इसलिए उन्होंने काव्य के लिए ऐसा पौराणिक कथानक चुना है जिसके नायक-नायिका धर्म से अनुप्राणित हैं और जिनके जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है । मनुष्य के अभ्युदय और निःश्रेयम् की सिद्धि सम्यक् जीवन-दर्शन और समीचीन जीवन-पद्धति से ही संभव है । इसीलिये आत्महित और लोकहित में निरत सन्त कवि इन्हीं से परिचित कराने के लिए काव्य और नाट्य को माध्यम बनाते हैं, क्योंकि काव्य और नाट्य कान्तासम्मित उपदेश के अद्वितीय साधन हैं । मनुष्य की जीवन-पद्धति उसके जीवनदर्शन पर आश्रित होती है। यदि मनुष्य की दृष्टि में आत्मा अनित्य है, मृत्यु के बाद सब कुछ खत्म हो जाता है, तो उसकी जीवनपद्धति निश्चित ही " ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्" वाली होगी । इसके विपरीत यदि उसे आत्मा एक शाश्वत तत्त्व प्रतीत होता है, मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, यह विश्वास उसे होता है तो उसकी जीवनपद्धति का स्वरूप कुछ और ही होगा । जयोदय में जो जीवनदर्शन प्रतिविम्बित हुआ है उसके मान्य तथ्य हैं- सृष्टि की अनादि अनन्ता, आत्मा की नित्यता एवं स्वतन्त्रता, कर्मसिद्धान्त, पुनर्जन्म एवं मोक्ष | इस जीवनदर्शन से अनुप्रेरित जीवनपद्धति के विभिन्न अंगों को कवि ने मुनिराज द्वारा जयकुमार को दिये गये उपदेश के माध्यम से प्रकट किया है। जो इस प्रकार है पुरुषार्थ चतुष्टय 1 धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; ये चार पुरुषार्थ भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के लक्ष्य माने गये । इनमें धर्म, अर्थ और काम गृहस्थ के करने योग्य हैं । यद्यपि ये एक साथ परस्पर विरुद्धता लिये हुए हैं, तथापि गृहस्थ उन्हें अपने विवेक से परस्पर अनुकूल करते हुए सिद्ध करे।' अर्थ- पुरुषार्थ और काम-पुरुषार्थ लौकिक सुख के लिए हैं और जन्मान्तरीय आगामी सुख के लिए मोक्ष-पुरुषार्थ है । किन्तु धर्म-पुरुषार्थ की तो कौए की आँख में स्थित कनीनिका के समान दोनों ही जगह आवश्यकता है। संसार में एक मात्र घर ही गृहस्थ के लिए भोगों का समुचित स्थान है । उस भोग का साधन धन है । वह धन १. जयोदय, २ / १९ २. वही, २/१०
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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