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________________ २०० जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन करते हैं ।' जब उन्हें पूर्वजन्म का स्मरण होता है तब जिनेन्द्र वन्दना के उद्देश्य से तीर्थयात्रा पर जाते हैं। वैराग्यभाव के जागरित होने पर राज्य त्यागकर प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की शरण लेते हैं । उनसे जिनदीक्षा अंगीकार कर तपस्या करते हैं।' __ जयकुमार निरन्तर धर्म, अर्थ एवं काम साधना में रत रहते हैं । वे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ भी हैं । उनकी सभा में प्रजा के हितेच्छु मन्त्री, पुरोहित, विद्वान्, दूत, वैद्य एवं चारण हैं। वे सभी अपने-अपने कार्य में कुशल हैं । जयकुमार विनम्र राजा हैं । वे अपनी सभा में पधारे अकम्पन के दूत का स्वागत करते हैं । वे व्यवहार कुशल एवं मिलनसार हैं । अपने द्वारा पराजित अर्ककीर्ति से शीघ्र मित्रता कर लेते हैं । विवाहोपरान्त सम्राट भरत से मिलने अयोध्या जाते हैं और उनके पुत्र अर्ककीर्ति को पराजित करने के अपराध की क्षमायाचना करते हैं।" संयम जयकुमार का आभूषण है । उनका मन कभी धर्म-विरुद्ध कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता । एक बार हिमालय पर स्थित मन्दिर में जिनपूजन कर बाहर आते हैं । आते समय स्वर्ग से काञ्चना नामक देवी आकर उनके शील की परीक्षा करती है । मधुर वार्तालाप एवं विविध कामचेष्टाओं द्वारा उन्हें आकृष्ट करने का प्रयास करती है, किन्तु विफल हो जाती है । तब अपने पति के साथ पुनः आकर जयकुमार की पूजा करती हैं।' इस प्रकार नायक जयकुमार के चरित्र में धीरता और उदात्तता का मञ्जुल समन्वय है। अर्ककीर्ति यह भरत चक्रवर्ती का पुत्र है। प्रस्तुत काव्य में अर्ककीर्ति का चित्रण प्रतिनायक के रूप में किया गया है । दशरूपक में प्रतिनायक को लोभी, दी, मात्सर्ययुक्त, मायावी, कपटी, अहंकारी, क्रोधी, आत्मश्लाघापरक, हठी, पापशील, व्यसनी एवं नायक का शत्रु बतलाया गया है। अर्ककीर्ति में उक्त सभी विशेषतायें दृष्टिगोचर होती हैं । उसकी सारी चेष्टायें नायक के प्रतिकूल, सुलोचना की प्राप्ति के लिए होती हैं ।. १. जयोदय, ८/८९-९५ २. वही, २४/५८-८५ ३. वही, २६ से २८ सर्ग ४. वही, २०/१-३९ ५. वही, २४/९८-१४३ ६. दशरूपक - २/५
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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